श्री जगत सिंह बिष्ट
(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)
वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।
– श्री जगत सिंह बिष्ट
(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में पहला दस्तावेज़ “स्व. शेरदा जी और उनकी विरासत”।)
☆ दस्तावेज़ – स्व. शेरदा जी (स्व. शेर सिंह बिष्ट जी) और उनकी विरासत ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
नौला गाँव, रानीखेत के पास पहाड़ों में बसा एक सुरम्य गाँव है जहाँ रामगंगा नदी बहती है। इस गांव के एक तरफ भिक्यासैंण और भतरौंजखान हैं तो दूसरी तरफ मासी और चौखुटिया। दूनागिरी और मानिला देवी के मंदिर भी पास ही हैं। यहां शेरदा का जन्म प्रथम विश्व युद्ध के आसपास हुआ। उनके पिता, नरपत सिंह, जिन्हें वे बाज्यू पुकारते थे, एक साधारण किसान थे, जो इस खूबसूरत परन्तु दूरस्थ गाँव के लगभग एक दर्जन परिवारों में से एक थे। पहाड़ों की सादगी और सुंदरता के बीच बड़े होते हुए, शेरदा का जीवन कृषि और ग्रामीण परंपराओं का अनुसरण करने के लिए निर्धारित लगता था। परन्तु शेरदा ने ऐसा जीवन जिया जिसने न केवल उनका भविष्य बदला बल्कि उनके परिवार और समुदाय की समृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त किया।
बचपन में, शेरदा ने स्थानीय विद्यालय में विज्ञान और गणित में असाधारण योग्यता दिखाई। परन्तु उनके जीवन ने तब एक नाटकीय मोड़ लिया जब उनके माता-पिता का कम उम्र में निधन हो गया। युवा अवस्था में ही उन्होंने किसान के रूप में जिम्मेदारी संभाल ली, खेतों में काम करते हुए अपनी बड़ी बहन, जिन्हें सब दीदी कहते थे, और दो छोटे भाइयों, बागुआ और रूपी के संरक्षक बन गए। त्याग और कर्तव्य के इन प्रारंभिक वर्षों ने उनमें गहन संकल्प और उद्देश्य की भावना को स्थापित किया। उन्होंने अपने परिवार का पालन-पोषण करने और अपने भाइयों को प्यार और मार्गदर्शन देने के लिए अथक परिश्रम किया। बागुआ, बाग सिंह, ज़्यादातर गांव में ही रहे और नौला और आसपास के गांवों के सरपंच चुने गए।
जब उनके भाई बड़े हुए, तो शेरदा ने बेहतर भविष्य की तलाश में गाँव छोड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क होते हुए, रामगंगा नदी के किनारे किनारे, पैदल चलते हुए, रामनगर तक की कठिन यात्रा तय की और फिर दिल्ली पहुंचे। वहाँ उन्होंने भंडारी की स्वामित्व वाली एक जानीमानी निर्माण कंपनी में काम पाया, जहाँ उनकी मेहनत और ईमानदारी ने सरदार का विश्वास अर्जित किया। उनका व्यक्तिगत सहायक बनने के बाद, शेरदा ने लाहौर, कलकत्ता, बंबई और जबलपुर की यात्राएँ कीं और शहरी जीवन और उद्योग की जानकारी प्राप्त की।
युवावस्था में, दिल्ली में रहते हुए, वे महात्मा गांधी से प्रेरित हुए और आजीवन खादी धारण करने और नंगे पांव चलने का संकल्प लिया। कई बार वे बताते थे कि किस प्रकार 14 और 15 अगस्त, 1947 की दरमियानी रात को, रात भर संसद भवन के सामने अपार भीड़ में शामिल होकर, जोशपूर्वक आज़ादी का जश्न मनाते रहे।
जबलपुर में, शेरदा ने एक छोटी कैंटीन चलाने का अवसर देखा, जो उनके उद्यमशीलता के सफर की शुरुआत थी। दृढ़ संकल्प और दूरदर्शिता के साथ, उन्होंने अपना व्यवसाय बढ़ाया और खमरिया में आयुध निर्माणी के क्षेत्र में एक बड़ी कैंटीन संचालित करने लगे। उन्होंने अपने छोटे भाई रूपी, रूप सिंह, को सहायता के लिए बुलाया, और एक संपन्न व्यवसाय की नींव रखी, जो उनके विस्तारित परिवार के लिए आर्थिक आधार बना। आगे चलकर, उन्होंने एक साबुन बनाने का कारखाना भी स्थपित किया।
शेरदा का विवाह नंदी देवी से संपन्न हुआ, जो पास ही में, मासी के पार, गाँव बसोली के किसान दीवान सिंह घुघत्याल की पुत्री थी। उनकी पारिवारिक प्रतिबद्धता केवल अपने भाइयों तक सीमित नहीं थी; उन्होंने अपनी पत्नी के भाइयों को भी जीवन में सुव्यवस्थित करने में सहायता की। शेरदा की प्रेरणा एक गहरी जड़ें रखने वाली इच्छा थी कि उनके प्रियजन उन्नति करें। स्वामी विवेकानंद के उन शब्दों से प्रेरित, जिन्होंने कहा था, “वे ही जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं,” शेरदा ने अपने परिवार और समुदाय की भलाई के लिए खुद को समर्पित कर दिया।
व्यक्तिगत जीवन में, शेरदा एक धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति थे। वे श्री सत्य साईं बाबा के भक्त बन गए और उनके दर्शन के लिए पुट्टापर्थी की यात्राएँ कीं। उन्होंने कुंभ स्नान और बद्रीनाथ धाम की यात्रा भी की। साधु संतों का वे पूरी श्रद्धा से स्वागत करते थे। शेरदा के लिए अध्यात्म उनकी कड़ी मेहनत, शिक्षा और दूसरों की सेवा के मूल्यों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ था। उन्होंने अपने चार पुत्रों और तीन पुत्रियों को ऐसी शिक्षा और परवरिश प्रदान की, जिसने उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में उन्नति करने का अवसर दिया।
सफल व्यवसाय और पारिवारिक उपलब्धियों के वर्षों के बाद, शेरदा ने अपने प्रिय गाँव नौला लौटने का निर्णय लिया क्योंकि वे अपना अंतिम समय रामगंगा नदी के किनारे बिताना चाहते थे। घर के आंगन में स्थापित दौनीपाथर पर घंटों बैठकर पूजापाठ करते। यह पवित्र पत्थर, जिस पर पूरे गांव की श्रद्धा है, उनके परदादा दूर जंगल से लेकर आए थे। यहाँ उन्होंने एक बार फिर गाँव के जीवन की सादगी को अपनाया, खूब पैदल घूमे – नंगे पांव पैदल चलना उन्हें अत्यंत प्रिय था – और 90 वर्ष से अधिक की आयु में नश्वर देह त्याग दी।
शेरदा की विरासत उनके पुत्रों—जसवंत, जगत, महेंद्र और दान सिंह—और पुत्रियों गोविंदी, लीला और सरस्वती में जीवित है, जो सभी अपने-अपने क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर रहे हैं। शिक्षा और परिवार कल्याण के प्रति उनकी दृष्टि ने न केवल उनके परिवार पर बल्कि पूरे परिवार पर एक स्थायी छाप छोड़ी है। उनके भाई, साले और उनके परिवार सभी स्थिरता और सफलता प्राप्त कर चुके हैं, जो शेरदा की उनकी भलाई के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण है।
शेरदा – शेर सिंह बिष्ट – का सम्मान करते हुए, हम एक ऐसे व्यक्ति का उत्सव मनाते हैं, जिसने अपने गाँव के पहाड़ों से परे सपने देखने का साहस किया, अपने परिवार को समृद्धि दी, और शिक्षा, आध्यात्मिकता और समाज की सेवा के गुणों का उदाहरण प्रस्तुत किया। अपने जीवन के माध्यम से, शेरदा ने हमें दिखाया कि महानता भव्यता में नहीं, बल्कि दूसरों को ऊपर उठाने और अपने से परे एक उद्देश्य के लिए जीने की स्थिर प्रतिबद्धता में निहित है।
☆ Late SherDa – Sher Singh Bisht ji and his heritage ☆
In the serene village of Naula, nestled in the mountains near Ranikhet and cradled by the flowing Ramganga River, SherDa was born around the time of World War I. His Bajyu, father in Kumaoni dialect, Narpat Singh, was a humble farmer descending from the Syontari Bishts, one of the about a dozen households living off the land in this picturesque yet remote village. On one side of the village was Bhikiyasain and Bhatronjkhan; and on the other side was Masi and Chaukhutia. Doonagiri and Manila Devi temples were not far away. Growing up amid the simplicity and beauty of the hills, SherDa’s life seemed destined to follow the rhythm of farming and village traditions. But SherDa would go on to lead a life that not only shaped his own future but uplifted the fortunes of his family and community.
As a child, SherDa attended the local school and showed a rare aptitude for science and arithmetic. However, his life took a dramatic turn with the early loss of his parents. Still a young man, he took on the responsibilities of a farmer, tending to the fields while also becoming the guardian of his elder sister, Didi, and his two younger brothers, Bagua and Rupi. These early years of sacrifice and duty fostered in him a profound resilience and sense of purpose. He worked tirelessly to provide for his family and ensure his siblings grew up with love and guidance. Bagua, Bag Singh, stayed back in the village and was elected as the Sarpanch of Naula and neighbouring villages.
As his brothers reached adulthood, SherDa sought a way to secure a better future. He left Naula and undertook a long, arduous journey through Jim Corbett National Park, reaching Ramnagar on foot, walking along the river Ramganga, and then on to Delhi. Here, he found work with a renowned construction company owned by the Bhandaris, where his diligence and integrity soon earned the Sardar’s trust. Rising to become his personal assistant, SherDa traveled to Lahore, Calcutta, Bombay, and Jabalpur, gaining exposure to urban life and industry. During his youth, he was influenced by Mahatma Gandhi. He wore Khadi and walked barefoot his entire life. He reminisced how he was part of the large crowd that gathered outside parliament on the intervening night of 14th and 15th August, 1947 chanting and celebrating freedom from colonial rule.
In Jabalpur, SherDa seized an opportunity to run a small canteen, which marked the beginning of his entrepreneurial journey. With determination and foresight, he expanded his venture, winning a lease to operate a restaurant in the Ordnance Factory Estate at Khamaria. Recognizing the value of family support, Sherda invited his youngest brother, Rupi, Roop Singh, to assist him, laying the foundation for a prosperous business that would become the economic backbone for his extended family. He diversified to set-up a soap factory in Ranjhi, Jabalpur.
SherDa married Nandi Devi, daughter of Diwan Singh, from the closeby village of Basoli, across Masi, from a family of the Ghugtyals. His commitment to family extended beyond his own siblings; he supported his wife’s brothers, helping the older ones to settle into productive lives and the younger ones to pursue their studies. SherDa’s motivation came from a deep-rooted desire to see his loved ones thrive. Inspired by the teachings of Swami Vivekananda, who once said, “They only live, who live for others,” SherDa dedicated himself to the welfare of his family and community.
In his personal life, SherDa was a man of faith and spiritual wisdom. He became a devout follower of Sri Sathya Sai Baba, making pilgrimages to Puttaparthi for his darshan. He went for pilgrimage to Kumbh Mela in Allahabad and Badrinath Dham in the Himalayas. Spirituality for Sherda was intertwined with his values of hard work, education, and service to others. He provided his own children—four sons and three daughters—with the education and upbringing that would allow them to flourish in their respective fields.
After years of successful business and family achievements, SherdDa decided to return to his beloved motherland Naula, settling along the riverbank in a home he had helped to build during his visits. He sat for long hours praying on the Dauni-pathar, a large slice of stone his great grandfather had brought from the deep forest beyond the hills. It occupies a sacred place of reverence for the entire village. Here, he embraced the simplicity of village life once more, enjoying long walks and living peacefully and devotedly until he passed away in March 2006 at the remarkable age of over 90.
SherDa’s legacy lives on through his children—Jaswant, Jagat, Mahendra, and Dan Singh—and daughters Govindi, Leela, and Saraswati, all of whom are well-settled and prosperous. His vision for education and family welfare has left an enduring mark, not only on his immediate family but on the entire clan. His brothers, brothers-in-law, and their families have all achieved stability and success, a testament to SherDa’s unwavering commitment to their wellbeing.
In honoring SherDa – Sher Singh Bisht – we celebrate a man who dared to dream beyond the mountains of his village, brought prosperity to his family, and exemplified the virtues of education, spirituality, and service to society. Through his life, SherDa showed us that greatness is not found in grand gestures but in the steady dedication to uplifting others and living for a purpose beyond oneself.
🙏💐 स्व. शेरदा जी को सादर नमन 💐🙏
© जगत सिंह बिष्ट
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈