श्री जगत सिंह बिष्ट
(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी से मुलाकात“।)
☆ दस्तावेज़ # 17 – सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी से मुलाकात ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
जो साज़ पे गुजरी है, वो किस दिल को पता है
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवींद्रनाथ त्यागी से मेरी पहली भेंट आज से लगभग तीस वर्ष पहले उनके गुरु तेगबहादुर मार्ग, देहरादून स्थित आवास पर हुई थी।
हरिशंकर परसाई ने कहीं लिखा है, “मैं रवींद्रनाथ त्यागी को एक श्रेष्ठ कवि और एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार स्वीकार करता हूं। उनकी विशिष्टता का एक प्रमुख कारण यह है कि हमारे जो पुराने क्लासिक्स हैं, उनमें उनकी गति है। वे सचमुच बहुत अच्छा लिखते हैं। ऐसा प्रवाहमय विटसंपन्न गद्य मुझसे लिखते नहीं बनता।”
शरद जोशी के निधन के बाद, एक नवोदित व्यंग्यकार ने परसाई से पूछा कि शरद जोशी और अपने बाद, समकालीन व्यंग्यकारों में वे किसे श्रेष्ठ मानते हैं। उन्होंने रवींद्रनाथ त्यागी का नाम लिया। उस व्यंग्यकार ने कहा कि अकेला ‘राग दरबारी’ ही श्रीलाल शुक्ल को उत्कृष्टम व्यंग्यकारों की श्रेणी में खड़ा करने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने फिर कहा कि आप रवींद्रनाथ त्यागी को ध्यानपूर्वक पढ़िए। ऐसा कई बार हुआ। अलग अलग समय, अवसर और मूड में, उनसे यह प्रश्न दोहराया जाता था। वे हर बार यही कहते थे कि रवींद्रनाथ त्यागी को पढ़िए, ध्यानपूर्वक पढ़िए।
यह आज से लगभग तीस साल पहले की बात होगी। तदोपरांत, त्यागी से मिलने, उनको प्रत्यक्ष जानने-समझने और उनकी कतिपय कृतियों को पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। कालांतर में, वे मेरे लिए ‘आदरणीय’ से ‘श्रद्धेय’ हो गए।
एक व्यंग्यकार मित्र, उन दिनों, मज़ाक में कहा करते थे कि हिंदी व्यंग्य के तीन स्कूल हैं – परसाई स्कूल, जोशी स्कूल और त्यागी स्कूल – और तीनों में भर्ती चालू है।
मेरी प्राइमरी शिक्षा परसाई स्कूल में हुई। शरद जोशी के व्यंग्य मैं मंत्रमुग्ध होकर पढ़ता और सुनता था। उनकी शब्द-छटा अलौकिक होती थी और मैं मुक्त मन और कंठ से उसकी प्रशंसा करता था।
गर्मियों की छुट्टियों में, मै अक्सर परिवार के साथ देहरादून जाया करता था, जहां सेवानिवृत्ति के बाद रवींद्रनाथ त्यागी का निवास था। उनसे पहली मुलाकात के दौरान, दो लंबी मुलाकातें हुईं और ढेर सारी बातें हुईं। मैं उनसे इतना प्रभावित हुआ कि मैंने मिडिल स्कूल के लिए त्यागी स्कूल में आवेदन कर दिया। एडमिशन के मामले में वे काफी स्ट्रिक्ट दिखाई दिए लेकिन मैंने पाया कि मेरे प्रति उनका रुख काफी उदार एवं स्नेहपूर्ण रहा। भला कौन नहीं चाहता कि उसके स्कूल में एकाध होनहार छात्र भी हो!
पहली मुलाकात की औपचारिकताओं के बाद, मैंने उन्हें बताया कि परसाई उनकी बेहद तारीफ़ किया करते हैं। त्यागी बोले, “यह तो उनकी महानता है। परसाई हमारे एकमात्र अंतरराष्ट्रीय स्तर के लेखक हैं। उनके लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी प्रत्येक रचना उद्देश्यपूर्ण है, उनका संपूर्ण लेखन प्रतिबद्ध लेखन है। उन्होंने गरीबों और शोषित-पीड़ितों का दुख पहले शिद्दत से महसूस किया, फिर प्रतिबद्ध हुए, और लिखा। उल्टा नहीं हुआ। पहले प्रतिबद्धता नहीं आई। पहले अनुभव किया, फिर प्रतिबद्ध हुए। तभी उनमें वो दृष्टि और गहराई है।”
थोड़ा ‘नॉस्टैल्जिक’ होकर उन्होंने बताया कि 1979 में जब वे दौरे पर जबलपुर गए थे तो रोज शाम परसाई से भेंट करते थे। परसाई ने स्थानीय कॉलेज में उनके सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया और अपनी अस्वस्थता के बावजूद वहां गए और पूरे समय तक बैठे रहे। परसाई उनके प्रति गहरी आत्मीयता का अनुभव करते थे क्योंकि दोनों गर्दिश की लंबी-लंबी रातों से गुजरे और निखरे थे। (यदि आपने परसाई और त्यागी की ‘गर्दिश के दिन’ शीर्षक रचना न पढ़ी हो तो अवश्य पढ़ लें) उन दिनों त्यागी कुछ परेशान थे और नौकरी छोड़ने पर विचार कर रहे थे। विदा होते समय परसाई ने उनसे वचन लिया कि वे त्यागपत्र नहीं देंगे और अपने उच्च सरकारी पद पर रहते हुए लिखते रहेंगे।
शरद जोशी को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि यदि वे बंबई में दो कमरों का फ्लैट बनाने के चक्कर में न पड़ते तो शायद इतनी जल्दी हमारे बीच से चले जाने से बच जाते। व्यर्थ की भागमभाग, रात-दिन तनाव में लिखना, मंच पर व्यंग्य पाठ के लिए हवाई यात्राएं, टीवी सीरियल की डेडलाइन और अनियमित खानपान ने उनका स्वास्थ्य ध्वस्त कर दिया।
जब त्यागी को चकल्लस पुरस्कार मिलना था तो उस कार्यक्रम में शरद जोशी भी उपस्थित थे। उन्होंने देखा कि शरद जोशी कुछ परेशान और विचलित से लग रहे हैं। पूछने पर पता चला कि उस दिन उनका टीवी पर पहला प्रोग्राम आने वाला था। इन्होंने कहा कि आप जाकर कहीं देख आइए लेकिन वे नहीं गए और कार्यक्रम के अंत तक बैठे रहे।
त्यागी में सबसे बड़ा गुण जो मैंने पाया, वो था उनका ज़रा भी आत्ममुग्ध नहीं होना। मैंने उनके गद्य की प्रशंसा करनी चाही तो उन्होंने रोक दिया। मैंने उन्हें महानतम व्यंग्यकार कहना चाहा तो उन्होंने बहुत विनम्रता और स्पष्टवादिता के साथ कहा कि समकालीन व्यंग्यकारों में सबसे पहले हरिशंकर परसाई, फिर शरद जोशी, फिर श्रीलाल शुक्ल, और उसके बाद ही रवींद्रनाथ त्यागी। श्रीलाल शुक्ल की प्रारंभिक दो पुस्तकों ‘अंगद का पांव’ और ‘सूनी घाटी का सूरज’ को वे उनकी उत्कृष्ट कृतियां मानते थे।
चर्चा अन्य व्यंग्यकारों के साथ-साथ, लतीफ घोंघी की भी चली। उन्होंने कहा कि आप और हम मुस्लिम समाज को नहीं जानते जितना लतीफ। मुस्लिम समाज की रूढ़ियों पर उन्होंने प्रहार किया। मैंने उन्हें ध्यान दिलाया कि लतीफ घोंघी पर केंद्रित रचना ‘तीसरी परंपरा की खोज’ में उन्होंने लिखा है, “पुस्तक (व्यंग्य रचना) की प्रशंसा में यह भी कहना पड़ेगा कि लतीफ की रचनाओं का स्तर और रचनाओं का रस ठीक वही है जो अब तक की उन्नीस पुस्तकों में था। आप उस पर यह अभियोग कभी नहीं लगा सकते कि उन्होंने अपना स्तर उठाया, नया रस पैदा किया, या किसी नए चरित्र की सृष्टि की। वे वहीं हैं, जहां थे। वे पीछे नहीं हटे। सुमित्रानंदन पंत की भांति उन्होंने ‘पल्लव’ के ‘सा’ को ‘गुंजन’ के ‘रे’ में नहीं बदला। वे इंसान ही रहे, महान नहीं बने।” उन्होंने बताया कि लतीफ घोंघी ने उनके कथन को सही स्पिरिट में लिया और सहर्ष स्वीकार किया।
त्यागी का व्यक्तित्व अंतर्मुखी था। वे एकदम से किसी व्यक्ति को हाथों-हाथ नहीं लेते। उसे समझते-परखते, तब जाकर खुलते। प्रारंभिक संकोच और दूरी के बाद, वे मुझे बहुत आत्मीयता से अपनी ‘स्टडी’ में ले गए और मेरे बारंबार आग्रह पर उन्होंने भावविभोर होकर अपनी कुछ कविताएं सुनाईं। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था। उनकी कविताएं मैंने पहले नहीं पढ़ी थीं। बहुत धीर-गंभीर, गहरी और अंतर्मुखी कविताएं लिखते थे वो। उनका गद्य हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण है और कविताएं इसके ठीक विपरीत। ये रवींद्रनाथ त्यागी के व्यक्तित्व के दो पहलू हैं। इन्हें जाने बगैर उन्हें नहीं समझा जा सकता। उनकी एक कविता प्रस्तुत है, जो हरिवंश राय बच्चन को पसंद आई और उन्होंने इसे अपने द्वारा संपादित ‘हिंदी की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएं’ नामक संग्रह में शामिल किया। कविता इस प्रकार है:
☆ अंधा पड़ाव ☆
ड्राइंग रूम में वह नहीं आया
उसके चमचमाते जूते आए,
जब मिलाया उसने हाथ
मुलाकात रह गई दस्तानों तक,
जब वह बैठा सोफे पर
तो उनकी जगह एक शानदार शूट वहां बैठ गया,
कफ़ों ने पकड़ा कॉफ़ी का कप
टाई और कॉलर ने ब्रेकफास्ट किया,
उसके होंठ नहीं हँसे बिल्कुल
सिर्फ़ उसकी सिगरेट चमकी
विदा की जगह हिलता रहा रूमाल
वह नहीं निकला पोर्च के बाहर
सिर्फ़ उसकी मोटर निकली।
उन्होंने संस्कृत और हिंदी साहित्य का गहन अध्ययन किया था। उर्दू शेरोशायरी और अंग्रेजी क्लासिक्स का भी उन्हें ज्ञान था। इतिहास और दर्शन शास्त्र में उनकी गहन रुचि थी। अख़बार और पत्रिकाएं वे नियमित पढ़ते थे। पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के महत्वपूर्ण अंशों को रेखांकित कर ध्यानपूर्वक मनन करते थे। प्रतिदिन, घंटों राइटिंग टेबल पर बैठकर, टेबल लैंप की रोशनी में लिखते रहते थे। साहित्य के प्रति उनकी लगन देखते ही बनती थी। जितने वे प्रतिभावान थे, उतने ही परिश्रमी, व्यवस्थित और अनुशासित भी। उन्होंने मुझे बताया कि व्यंग्य लेखन के लिए पढ़ना, खूब पढ़ना, बेहद जरूरी है। आप खूब पढ़िए, कांजी हाउस के पर्चे से लेकर पीजी वुडहाउस तक। लेखन में परिश्रम बेहद आवश्यक है। लिखिए, रीराइट कीजिए, बार बार पढ़कर सुधारिए। टॉल्स्टॉय ने युद्ध और शांति जैसे बड़े उपन्यास को तीन बार रीराइट किया। और सबसे महत्वपूर्ण बात, लेखन से कभी कोई उम्मीद मत करना, बस लिखते रहना।
वे मुंह-देखी बात नहीं करते थे। अपनी बेबाक और स्पष्ट टिप्पणी करते थे। उन्होंने कहा कि आपके पहले व्यंग्य-संग्रह में कुछ रचनाएं ठीक थीं लेकिन उसका शीर्षक ‘तिरछी नज़र’ हल्का था। मैंने उन्हें दफ्तरी जीवन पर आधारित अपने स्तंभ के बारे में बताया, तो उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करने के लिए उन्होंने प्रोत्साहित किया लेकिन कहा कि आपका शीर्षक ‘दफ्तर की दुनिया’ मुझे अच्छा नहीं लगता। बाद में उन्होंने एक शीर्षक सुझाया ‘घर से चलकर दफ्तर तक’। प्रकाशक महोदय की कृपा से यह पुस्तक ‘अथ दफ्तर कथा’ नाम से छपी।
रवींद्रनाथ त्यागी साहित्य में रस को अनिवार्य मानते थे। वे रूपवाद, कलावाद और प्रगतिवाद के पचड़ों से ऊपर उठकर थे। उन्होंने कहा कि जो भी रसपूर्ण है, मैं लिखूंगा, यदि आवश्यक हुआ तो चुटकुले भी। उन्होंने विश्व के महान राजनेताओं से संबंधित हास्य-व्यंग्य लिखा है। इसी तरह, प्रसिद्ध साहित्यकारों से संबंधित हास्य-व्यंग्य वे उन दिनों लिख रहे थे। उनके पास अनेक पत्र आते थे जो उनके साहित्य में अश्लील अंशों पर आपत्ति जताते थे लेकिन अपनी रचनाओं में हसीन स्टेनो, सुन्दर रमणी, रूपवती विधवा, इत्यादि की पुनरावृति से वे चिंतित नहीं होते थे। उन्होंने कालिदास के मेघदूत के कुछ अंश, जो उन्हें कंठस्थ थे, सुनाए और सिद्ध किया कि श्लील और अश्लील की लक्ष्मण-रेखा बहुत बारीक है। कालिदास ने कुछ आवश्यक प्रसंगों के साथ, अनावश्यक अश्लील प्रसंग भी विस्तार से चित्रित किए हैं। थोड़ा काव्यानंद आप भी लें:
वहां अलका में, कामी प्रियतम,
लाल-लाल अधरों वाली प्रेमिकाओं के
नीवीबंधों के टूट जाने से ढीले पड़े वस्त्र को
जब खींचने लगते हैं,
तो लज्जा के कारण विमूढ़ बनी वे रमणियां
सामने रखे,
किरणें छिटकाते रत्नदीपों पर,
मुट्ठी भर-भर कुमकुम फेंककर बुझाने की असमर्थ चेष्टा करती हैं,
क्योंकि रत्नदीप बुझाए नहीं जा सकते।
उन दिनों वे रवींद्र कालिया द्वारा संपादित और इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से प्रकाशित साप्ताहिक ‘गंगा-यमुना’ के लिए, पचास साल पूर्व के इलाहाबाद के संस्मरण लिख रहे थे।
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पर केंद्रित संस्मरण को सुनने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘सरस्वती’ के हीरक जयंती अंक में छपे सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के फोटो दिखाए। उन दिनों के ढेरों संस्मरण सुनाए। यहां उनके ‘कुछ और साहित्यिक संस्मरण’ का प्रारंभिक अंश उद्धृत कर रहा हूं:
“दुष्यंत मेरा बचपन का दोस्त था। हाई स्कूल में हम दोनों साथ-साथ पढ़ते थे और प्रयाग विश्वविद्यालय में भी हम दोनों सहपाठी रहे। हाई स्कूल का फॉर्म भरते समय, उसी ने मेरे नाम के साथ ‘त्यागी’ जोड़ा और बदले में मैंने ही उसका नाम ‘दुष्यन्त नारायण’ से ‘दुष्यन्त कुमार’ किया। उसी ने मुझे सर्वप्रथम पंत जी से मिलवाया और उसी के साथ मैंने निराला जी के प्रथम दर्शन किए। यदि वह मुझे मेरठ में चैलेंज न देता तो मैं कभी भी लेखक बनने की न सोचता। वह बाद में भी बराबर हिम्मत देता रहा मगर जैसे ही मेरा प्रथम काव्य-ग्रन्थ छपा और साहित्य के दिग्गजों ने उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करनी शुरू की, वैसे ही वह मुझसे बचने लगा। वह जब भी किसी साहित्यकार से मुझे मिलवाता तो मुझे ‘व्यंग्यकार’ कहकर ही मिलवाता, ‘कवि’ कहकर नहीं। धीरे-धीरे वह भी मेरी कविता का प्रशंसक बन गया जिसके लिए मैं आजीवन उसका कृतज्ञ रहूंगा। प्रयागराज में ही मैं श्रीराम वर्मा, मलयज और शमशेर बहादुर सिंह से मिला। ये लोग नितांत अध्ययनशील और प्रतिभाशाली थे मगर बाकी नवयुवक रचनाकारों की सदा निंदा भरी आलोचना ही किया करते थे। शमशेर ने मेरे कविता-संग्रह के फ्लैप पर कुछ भी लिखने से साफ मना कर दिया मगर बाद में मैंने देखा कि उन्होंने बेहद घटिया किस्म के काव्य-ग्रंथों की भी बेहद प्रशंसा की जिसका कारण मुझे बाद में मुझे दुष्यंत से ज्ञात हुआ।”
यह सच है कि उनकी कविताओं को जितनी स्वीकृति प्राप्त हुई, उससे कहीं अधिक प्रतिष्ठा उन्हें हास्य-व्यंग्य गद्य लेखन से मिली लेकिन इससे उनकी कविताएं गौण नहीं हो जातीं। उन्होंने लिखा है, “मेरा बचपन बड़े कष्टों में और बहुत ही ज़्यादा गरीबी में बीता। सारे भाई-बहन इलाज न होने के कारण एक-एक कर मर गए। ईश्वर की कृपा से मैंने किसी तरह उच्च शिक्षा प्राप्त की, देश की एक बड़ी सेवा के लिए चुना गया, और साहित्य की सेवा करने की प्रवृत्ति मिली। बाल स्वरूप राही का एक शेर याद आता है:
हम पर दुख का पर्बत टूटा तब हमने दो चार कहे,
उस पे भला क्या बीती होगी जिसने शेर हज़ार कहे।
लेखक पर सृजन का भरी दबाव होता है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसे अन्य लोग नहीं समझ सकते। लेखक भी आपस में लेखकों की मानसिक पीड़ा की चर्चा नहीं करते। जॉर्ज ऑरवेल, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, वॉल्ट विटमैन और विलियम फॉल्कनर की तरह रवींद्रनाथ त्यागी भी मानसिक अवसाद या डिप्रेशन से ग्रस्त और त्रस्त रहे। गर्दिश भरा बचपन, उच्च पद और नौकरी के तनाव, और लेखन का दबाव अपना असर दिखाते रहे। एक बार वे नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हुए। नौकरी में रहते हुए ईमानदारी और स्पष्टवादिता का खामियाजा भुगता, एक बार सस्पेंड हुए और प्रमोशन के क्रम में पिछड़ गए। हेनरी मिलर ने लगभग ठीक ही फरमाया है कि दुख की परिस्थितियां ही किसी लेखक को लेखक होने के लिए विवश करती हैं। लिखते हैं तो ज़िंदा हैं, न लिखते तो मर जाते। उन्होंने तब तक छह कविता-संग्रह, बीस व्यंग्य-संग्रह, एक उपन्यास, और बच्चों के लिए दो कथा-संग्रह लिखे थे। ‘उर्दू-हिंदी हास्य-व्यंग्य’ नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ का संपादन भी उन्होंने किया। आठ खण्डों में उनकी रचनावली भी प्रकाश्य थी। इतना कुछ लिखने में उन्होंने कितनी यातना, दुख, पीड़ा और तनाव सहा होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें प्रणाम करते हुए यह शेर कहा जा सकता है:
जो तार से निकली है, वह धुन सबने सुनी है,
जो साज़ पे गुजरी है, वो किस दिल को पता है!
♥♥♥♥
© जगत सिंह बिष्ट
Laughter Yoga Master Trainer
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Beautifully expressed!
Thank you very much. I am happy you liked it.
Thanks a lot, Saswati.