☆  दस्तावेज़ # 18 – विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांकसंपादक: अरविंद विद्रोही ☆ अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांक।) 

☆ विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांकसंपादक: अरविंद विद्रोही ☆ अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट ☆

विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांक

वर्ष 3, अंक 2-3, अप्रैल-सितंबर 1998

संपादक: अरविंद विद्रोही

अतिथि संपादक: जगत सिंह बिष्ट

प्रकाशक: दुर्गा प्रकाशन, जमशेदपुर

संपर्क: ई डब्लू एस 13/8, छोटा गोबिंदपुर,

जमशेदपुर – 831015

“शब्द कभी होता था ब्रह्म, आज माया है

अभिधा या लक्षणा नहीं, उसमें व्यंग्य ही समाया है।”

 – बालस्वरूप राही

‘विदूषक‘ पत्रिका के समकालीन व्यंग्य विशेषांक का अतिथि संपादन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। संवेदना की दशा तलाशती, हास्य-व्यंग्य की यह त्रैमासिक पत्रिका जमशेदपुर से प्रकाशित होती थी। इसके संपादक, अरविंद विद्रोही, जिन्होंने मुझे यह दायित्व सौंपा, का आभार मैं आजीवन मानूंगा। उनके जैसा जीवट वाला व्यक्ति मैंने नहीं देखा।

यह बात वर्ष 1998 की है। तब हास्य-व्यंग्य पत्रिकाओं में, मुंबई से ‘रंग’, जयपुर से ‘नई गुदगुदी’ और हिसार से ‘व्यंग्य विविधा’ प्रकाशित हो रही थीं। अधिकतर व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाएं व्यंग्य रचनाएं नियमित रूप से प्रकाशित कर रही थीं। अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी व्यंग्यकारों के लिए अपने द्वार खोल दिए थे। कुछ वर्ष पूर्व, अंबिकापुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘साम्य’ ने परसाई पर, और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘कथ्यरूप’ ने व्यंग्य पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किए थे।

हिंदी गद्य में हास्य-व्यंग्य लेखन की शुरुआत भारतेंदु हरीशचंद्र के काल में हुई। तब प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त ने हास्य-व्यंग्य लिखा। ‘अंधेर नगरी’ और ‘शिवशंभू के चिट्ठे’ अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लिखे गए साहसी व्यंग्य के नमूने हैं। उसके बाद जगन्नाथ चतुर्वेदी, अन्नपूर्णानंद, विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, राधाकृष्ण, गुलाबराय, जी पी श्रीवास्तव, श्रीनारायण चतुर्वेदी और विधान बनारसी ने हास्य-व्यंग्य लिखा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल और रवींद्रनाथ त्यागी ने इसे ठोस आधार प्रदान कर प्रतिष्ठित किया। के पी सक्सेना, केशवचंद्र वर्मा, बरसाने लाल चतुर्वेदी, मुद्राराक्षस, मनोहरश्याम जोशी, लतीफ घोंघी, शंकर पुणतांबेकर, कुंदन सिंह परिहार, नरेंद्र कोहली, प्रदीप पंत, सुदर्शन मजीठिया, कृष्ण चराटे, सूर्यबाला, हरीश नवल, प्रेम जनमेजय, सुरेश कांत और ज्ञान चतुर्वेदी ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

उस समय सक्रिय, ज़्यादा से ज़्यादा व्यंग्यकारों को ‘विदूषक’ के समकालीन व्यंग्य विशेषांक में स्थान मिले, यह मेरा विनम्र प्रयास था। बहुत उमंग और उत्साह से मिशन की शुरुआत की। लेकिन यह क्या? पहले चार मूल्यवान विकेट बिना कोई रन बनाए ही चले गए। उनसे प्राप्त पत्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं जिन्हें पढ़कर अतिथि संपादक के प्रति आपके मन में करुणा अवश्य जागेगी:

(एक)

लखनऊ, 6/3/98

प्रिय बिष्ट जी,

आपका पत्र मिला। मैं काफी अरसे से कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। पत्र-पत्रिकाओं में मेरी अनुपस्थिति आपने खुद लक्षित की होगी। अतः चाहकर भी विदूषक के लिए कुछ भेज नहीं पा रहा हूं। क्षमा करेंगे।

समकालीन व्यंग्य विशेषांक के लिए शुभकामनाएं,

आपका

श्रीलाल शुक्ल

(दो)

देहरादून, 7/2/98

प्रिय भाई,

आपका 30/1 का पत्र मिला। (आपके आग्रह के अनुसार) मैं नए व्यंग्यकारों पर कुछ नहीं लिख सकता। सबका पूरा कृतित्व मैंने नहीं पढ़ा है। ज्ञान चतुर्वेदी शायद सर्वश्रेष्ठ है। मैं गृहयुद्ध में नहीं पढ़ना चाहता। इधर तीन उपन्यास पढ़े जो अच्छे लगे।

सदा आपका

रवीन्द्रनाथ त्यागी

(तीन)

जलगांव, 6/3/98

प्रिय भाई साहब,

सस्नेह अभिवादन। आपका पत्र मिला। मैं ‘विदूषक’ के लिए नहीं लिख सकता। मैने पत्रिका के आरंभ होने के पूर्व ही लिखा था कि नाम ‘विदूषक’ ही रखना चाहें तो मेरा नाम सलाहकारों में न जाए। मैंने तीन बढ़िया नाम भी सुझाए थे लेकिन मसखरा नाम ही उन्होंने कायम रखा।

स्वस्थ-सानंद होंगे।

आपका सस्नेह

शंकर पुणतांबेकर

(चार)

मथुरा, 24/3/98

प्रिय बिष्ट जी,

नमस्कार। मैं मथुरा आ गया हूं इसलिए आपका (दिल्ली के पते पर भेजा गया) पत्र समय पर नहीं मिला। विदूषक का समकालीन व्यंग्य विशेषांक अवश्य भेजने की कृपा करें। अब तो वो निकल भी गया होगा।

आशा है, सपरिवार प्रसन्नचित होंगे।

आपका

बरसाने लाल चतुर्वेदी

ये पत्र तो फटाफट आ गए लेकिन काफी समय बीत जाने पर भी कोई रचना नहीं आई। चिंता का विषय था। फिर लगा कि शायद व्यंग्यकार अपनी श्रेष्ठतम रचना के सृजन में डूबे हुए हैं। वो भी अंततः आने लगीं। सबसे पहले जो तीन रचनाएं प्राप्त हुईं, वो थीं:

प्रदीप पंत की ‘भैयाजी का दहेज’, कुंदन सिंह परिहार की ‘प्रोफेसर वृहस्पति और एक अदना क्लर्क’, और सुरेश कांत की ‘वोट कैचर’

मैं तब अमलाई (शहडोल) में पोस्टेड था। तुरंत उन्हें देखकर, जमशेदपुर रवाना किया। तब सॉफ्ट कॉपी का ज़माना नहीं था, लेखक रचना की टंकित या हस्तलिखित प्रति भेजता था। अलबत्ता, डेस्कटॉप कंपोजिंग और पब्लिशिंग का आरंभ हो चुका था।

यहां से सिलसिला शुरू हो गया। रचनाओं का प्रवाह धीमे-धीमे बढ़ने लगा। अगले क्रम में प्राप्त रचनाओं के शीर्षक और व्यंग्यकारों के नाम इस प्रकार हैं:

गिरिराज शरण अग्रवाल: अर्थों का दिवंगत होना

सुबोध कुमार श्रीवास्तव: ताबीज में लटका अंगूठी में जड़ा भविष्य

लतीफ घोंघी: दुखी मत होना चुनाव होते रहेंगे

सुदर्शन मजीठिया: डॉक्टर लंबाशंकर

हरीश नवल: किस्सा-ए-डूपलैस

कृष्ण चराटे: अरे क्या यार पापा

मोहनजी श्रीवास्तव: राष्ट्रकवि के अभाव में

मोहनजी श्रीवास्तव बहुत कम लोगों से मिलते थे। गुमनाम-सा जीवन जी रहे थे। एक रविवार हम अमलाई से तीस किलोमीटर दूर, शहडोल में उनके आवास पर गए और उनसे पूरी विनम्रता और दृढ़ता से आग्रह किया कि वे इस अंक के लिए अपना योगदान अवश्य दें। उन्होंने समय मांगा और वादा किया कि दस दिन के अंदर रचना आप तक पहुंच जाएगी। आज उनकी यह रचना हमारे लिए धरोहर है।

इसके बाद, एक-एक कर बहुमूल्य रचनाएँ हमें मिलती गईं। ज्ञान चतुर्वेदी ने राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य उनके उपन्यास  ‘बारामासी’ का एक अंश भेजा। फिर दो प्रिय मित्रों की रचनाएं आईं, जवाहर चौधरी की ‘ओहदेदार कला मर्मज्ञ उर्फ़ राजा को जुकाम’ और पूरन सरमा की ‘पत्रकारिता में मेरा योगदान’ डॉ सरोजिनी प्रीतम ने भेजी अपनी रचना ‘भार का बोझ’। हम कृतज्ञ हुए और कृतज्ञता के वजन तले दब गए।

तत्पश्चात् प्राप्त हुई कुछ वरिष्ठ व्यंग्यकारों से रचनाएं जिनका हमने आदरपूर्वक स्वागत किया:

विनोद कुमार शुक्ल: व्यंग्यकार दल का चुनाव घोषणा पत्र

गौरी शंकर दुबे: पर्यावरण सप्ताह

डॉ सी भास्कर राव: अंगों में अंगूठा

हरि जोशी: चुनाव और कर्मचारी का हावभाव

ईश्वर शर्मा: जनरल प्रमोशन

दामोदर दत्त दीक्षित: फार्मूला मेम साहब

अश्विनी कुमार दुबे: भैयाजी की डायरी के चार पृष्ठ

जब्बार ढांकवाला: अफसरियत का अकाल

डॉ गंगाप्रसाद बरसैंया: मोदिनी मर्दिनी मदिरे

गिरीश पंकज: यह देश है वीर जवानों का

रामावतार सिंह सिसौदिया: नीचता – नए सुपर पैक में

डॉ भगीरथ बडोले: महात्मा की आत्मा

अब रचनाओं की आवक गति पकड़ती जा रही थी। मैं भी उसी तत्परता से उन्हें देखकर जमशेदपुर रवाना करता जा रहा था। डॉ स्नेहलता पाठक ने अपनी रचना भेजी जिसका शीर्षक था ‘जनता के नाम मंत्रीजी का बधाई पत्र’, डॉ श्रीराम ठाकुर दादा की रचना मिली ‘शादी कल की और आज की’, और सूर्यकांत नगर की रचना ‘जिसके हाथ लोई, उसके सब कोई’। इनके थोड़ा आगे-पीछे पहुंचे ये लिफाफे:

प्रभाशंकर उपाध्याय: अब प्रवचन परोस प्यारे

कस्तूरी दिनेश: लाश के आसपास रोदन कला

फारूक आफरीदी: ठेके पर चाहिए समीक्षक

बृजेश कानूनगो: कष्ट निवारण पथ

यशवंत कोठारी: समाचारों में आदमी की तलाश

सत्यपाल सिंह सुष्म: जब मैं मर जाऊंगा

सुष्म बहुत ही अच्छे इंसान थे। वे हमारे पारिवारिक मित्र बन गए थे। इस व्यंग्य में, उन्होंने कल्पना की है कि उनके मरने के बाद आयोजित श्रद्धांजलि सभा में व्यंग्यकार क्या-क्या कहेंगे। उन्होंने लिखा है कि जगत सिंह बिष्ट कुछ इस तरह कहेंगे, मैं सुष्म से दिल्ली के पुस्तक मेले में मधुसूदन पाटिल के अमन प्रकाशन पर मिला था। मैंने उनकी एक-दो रचनाएं ही पढ़ी हैं। व्यंग्य में वे बिल्कुल मेरे कद्दावर ठहरते हैं। मैं सोचता था कि वे अपनी पुस्तक ‘बेवकूफी का कोर्स’ की प्रति मुझे देंगे। पर उन्होंने नहीं दी। इसलिए मैं भी चुप रहा। वे मेरे साथ मीठी-मीठी बातें खूब करते रहे। शायद ‘विदूषक’ के ‘समकालीन व्यंग्य विशेषांक’ में छपने के लिए। उन्हें कहीं से खबर लग चुकी थी कि मैं उसका अतिथि संपादक हूं। ध्यान रहे, ये शब्द मेरे नहीं, सत्यपाल सिंह सुष्म की कल्पना की उड़ान हैं।

इस बीच कुछ और रचनाएं जो प्राप्त हुईं:

मदन गुप्ता सपाटू: मुझे न ले जाना विद्युत शवदाह गृह

रवींद्र पांडे: भौतिक परिवर्तन

आलोक शर्मा: छाप और आप

श्रवण कुमार उर्मलिया: दिमाग की दरार

ब्रह्मदेव: बात एक पार्क की

अमलाई के ‘पाठक मंच’ के प्रबुद्ध सदस्यों की रचनाएं भी इस अंक में आपको मिलेंगी:

राजेंद्र सिंह गहलोत: किस्सा साढ़े तीन यार

अनिल गर्दे: बफे(लो) सिस्टम

अभय कुमार: घर से श्मशान तक

महेंद्र कुमार वर्मा: बड़े बाबू

जमशेदपुर के नवोदित रचनाकारों की रचनाएं भी शामिल की गईं हैं:

प्रेमचंद मंधान ‘लफ्ज़’: कचरा और हीरा

निर्मल मिलिंद: बड़े दिलवाले

बृजमोहन राय देहाती: रावण की चिट्ठी

हमारी हार्दिक इच्छा थी कि व्यंग्यालोचन खंड में, हास्य-व्यंग्य के बदलते स्वरूप, सैद्धांतिक पक्ष की विस्तृत विवेचना, व्यंग्य की वर्तमान दशा और दिशा, व्यंग्यलोचन के उद्भव और विकास का संक्षिप्त इतिहास, महत्वपूर्ण व्यंग्यकारों से साक्षात्कार, पिछले दो-चार दशकों की उत्कृष्ट कृतियों की समीक्षा भी इस विशेषांक में सम्मिलित करें लेकिन चाहकर भी हम ऐसा नहीं कर सके।

फिर भी, इस अंक के प्रारंभ में, प्रेम जनमेजय का ‘आलोचना का व्यंग्य’ शीर्षक से गहन-गंभीर आलेख है। डॉ तेजपाल चौधरी का विद्वतापूर्ण आलेख ‘व्यंग्य: एक शिल्प सापेक्ष विधा’ भी इसमें शामिल है। विनोद साव की शंकर पुणतांबेकर से बातचीत ‘यदि परसाई व्यंग्यकार हैं तो व्यंग्य एक विद्या है’  और मेरी रवींद्रनाथ त्यागी से बातचीत भी इसमें संग्रहीत है। समीक्षा खंड में, डॉ मधुसूदन पाटिल की समीक्षा ‘अपने परिवेश की विसंगतियां खोजते व्यंग्य’ और मेरे द्वारा की गई समीक्षा ‘पलाश जैसे शोख और चटख हास्य-व्यंग्य’ शामिल हैं।

इस विशेषांक में आपको सुधीर ओखदे दो जगह दृष्टिगोचर होंगे। व्यंग्य रचनाओं के खंड में, अपनी रचना ‘सिगरेट और मध्यमवर्गीय’ के साथ, और अंत में, अपने विचारोत्तेजक आलेख ‘व्यंग्य: कुछ कड़वी सच्चाइयां’ के साथ। ऐसी रचनाओं को अंग्रेज़ी में कहते हैं ‘थॉट प्रोवोकिंग’ – विचार करने के लिए विवश कर देने वाली।

एक बार फिर मैं सभी व्यंग्यकारों और आलोचकों को हृदय की गहराइयों से पुनः आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने उस समय इस विशेषांक के लिए अपना बहुमूल्य योगदान दिया। हमारे जिन आदरणीय मित्रों का इस दौरान देहावसान हो गया, उन्हें हम विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। जो मित्र आज भी व्यंग्य लेखन से जुड़े हुए हैं, उनके उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हुए, यह कामना करते हैं कि उनकी लेखनी और प्रखर हो!

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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