श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

हम आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  के हृदय  से आभारी हैं जिन्होंने  अभिभावकों एवं विद्यार्थियों के मार्गदर्शक के रूप में एक ऐतिहासिक पत्र हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है। लगभग 87 वर्ष पूर्व लिखा यह पत्र  मात्र पत्र  ही नहीं अपितु एक ऐतिहासिक दस्तावेज है जो आज भी प्रासंगिक है, जिसे राजनीतिक नहीं अपितु सामाजिक उत्थान के दृष्टिकोण से पढ़ा जाना चाहिए। इन पत्रों एवं पुस्तकों से सम्बंधित स्व पंडित जवाहरलाल नेहरू जी एवं स्व श्रीमती इंदिरा गाँधी जी के कई चित्र इंटरनेट पर उपलब्ध हैं किन्तु उन्हें कॉपीराइट कारणों से नहीं दे रहे हैं। 

श्री अरुण डनायक जी  के ही शब्दों में 

यह पत्र आज से कोई 87 वर्ष पहले एक पिता ने अपनी चौदह वर्षीय पुत्री को जेल से पत्र लिखा। उन्होंने और भी बहुत सारे पत्र लिखे पर यह पत्र महत्वपूर्ण है, इसलिए कि बच्चे इस उम्र मे अपरिपक्व होते हैं और उन्हें अपने भविष्य की योजनाएँ बनाने हेतु मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। यह पत्र आज भी प्रासंगिक है क्योंकि आज भी इस उम्र के बच्चों को क्या पढ़ा जाय और कैसा व्यवसाय चुना जाय, भविष्य की क्या योजना हो, बताने वाला शायद  कोई नहीं है। मैंने जब इस पत्र को पढ़ा , जोकि मूलतः अंग्रेजी में लिखा गया था, तो सोचा कि इसे सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित करूँ और साथ ही उन चौबीस स्कूलों के शिक्षकों को भी प्रेषित करूँ, जहाँ मेरे स्टेट बैंक के सेवानिवृत साथियों व अन्य मित्रों  के सहयोग से स्मार्ट क्लास शुरू की गई हैं, ताकि उन हज़ारों बच्चों को कुछ मार्गदर्शन मिल सके जिनके माता पिता उनसे बड़ी उम्मीदें पाल बैठे हैं।

☆ पिता का पत्र पुत्री के नाम ☆

देहरादून जेल

23 जनवरी 1933

प्यारी इंदु

साढ़े सात महीने के बाद होनेवाली हमारी मुलाक़ात आई और गई, तुम फिर बहुत दूर पूना में हो। तुम्हे तंदुरुस्त और खुश देखकर  मुझे अच्छा लगा। लेकिन ऐसी मुख्तसिर मुलाक़ात से क्या  फ़ायदा  जब हर बातचीत के लिए जल्दी करनी पड़े और बारबार घड़ी पर निगाह रखनी पड़े ? जो बहुत सी बातें मैं तुमसे कहना और दरियाफ्त करना चाहता था, उनमे से बहुत थोड़ी ही उस वक्त मुझे याद आ सकी। अब फिर मैं कई महीनों तक तुम्हे नहीं देख सकूंगा।

मैंने ख़त लिखकर मिस्टर वकील को यह सुझाव दिया है कि मैट्रिकुलेशन के बजाय तुम सीनिअर कैम्ब्रिज के लिए तैयारी करो। आगे अगर तुम्हे यूरोप में पढ़ना है तो सीनियर गालिबन ज्यादा मुनासिब रहेगा। आगे तुम कहाँ पढ़ोगी, यह मैं नहीं जानता। कभी मिलने पर इस पर गौर करना होगा। कोई जल्दी नहीं है। बहुत कुछ इस पर मुनहसिर होगा कि तुम क्या बनना चाहती हो। तुमने कभी इस बारे में सोचा है ? पिछले साल तुमने एक बार मुझे लिखा था कि तुम शिक्षक बनना चाहती हो। दूसरों को पढ़ाना बहुत बढ़िया काम है, लेकिन बेशक पढ़ाया तभी जा सकता है जब खुद बहुत सा सीख लिया गया हो। दुनिया में और बहुत से दिलकश काम हैं लेकिन अच्छी तरह से कुछ भी करने के लिए बहुत काफी ट्रेनिंग की जरूरत होती है। हिन्दुस्तान में लड़कों या लड़कियों के सामने रोज़गार या काम के बहुत से रास्ते नहीं खुले रहते। लड़कों की बड़ी तादाद वकील बनना या नौकरी करना चाहती है। लडकियाँ भी उसी ढर्रे पर चलने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन यह तो पैसा कमाने का एक रास्ता हैI पैसा कमाना ही काफी अच्छी बात नहीं है, हालांकि मौजूदा दुनिया में कुछ पैसा कमाना ही पड़ता है। ज्यादा महत्व इस बात का है कि कुछ उपयोगी काम किया जाय, जिससे उस बड़े समाज का हित हो जिसमें हम रहते हैंI अपने पुराने पेशे वकालात को मैं निहायत नापसंद करता हूँ। मैं इसे असमाजिक पेशा कहता हूँ, क्योंकि इससे समाज को कोई फायदा नहीं होता। यह लोगों को लालची बना देता है और सिर्फ होशियार बनाता है कि दूसरों का खून चूसा जा सके। इस वास्ते मैं वकालात को अच्छा नहीं कह सकता। वह न कोई चीज पैदा करता है और न दुनिया की अच्छी चीजों में बढ़ोतरी करता है। वह तो महज दूसरों की चीजों का हिस्सा ले लेता है।

वकील के पेशे की तरह कुछ दूसरे असमाजिक धंधे भी हैं। दरअसल आज भी हिन्दुस्तान में सबसे ज्यादा इज्जत उन्ही लोगों को हासिल है जो खुद कुछ नहीं करते और उनके पुरखे उनके लिए जो कुछ छोड़ गए हैं, उसी के सहारे ऐशो इशरत की जिन्दगी बसर करते हैं। हमें इन सारे असमाजिक लोगों का ख्याल नहीं करना चाहिए।

काम के सामाजिक और उपयोगी स्वरुप क्या हैं? वे इतने सारे हैं कि मैं एक सूची तक नहीं बना सकताI हमारी आज की दुनिया ऐसी पेचीदा है कि इसे चालू रखने के लिए हज़ारों किस्म के कामों के जरूरत है। ज्यों ज्यों तुम बड़ी होती जाओगी और पढ़ोगी और तुम्हारी जानकारी का दायरा बढेगा , तुम्हे तरह तरह के इन कामों की कुछ झाँकी मिलेगी–दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में करोड़ों लोग सामान तैयार कर रहे हैं-खाना, कपड़ा और बेशुमार दीगर चीजें। करोड़ों आदमी इन चीजों को दूसरों तक पहुंचा रहे हैं और बाँट रहे हैं। किसी दूकान पर तुम कोई चीज खरीदती हो। दूकान के पीछे सब तरह की फैक्टरियां और मशीने और मजदूर और इंजीनियर हैं। और फैक्टरियों के पीछे खेत हैं और खानें हैं, जिनसे कच्चा माल मिलता है। यह सब बहुत पेचीदा और दिलकश है। और करने लायक काम यह है कि हममें से हर किसी को इस उपयोगी काम में हाथ बँटाना चाहिए।

हम वैज्ञानिक बन सकते हैं, क्योंकि आज हर चीज के पीछे विज्ञान है ; या फिर हम इंजीनियर हो सकते हैं या वे जो विज्ञान का उपयोग आदमी की रोजाना जरूरतों के लिए करते हैं; या डाक्टर हो सकते हैं , जो इंसान की तकलीफ कम करने के लिए विज्ञान का उपयोग करते हैं और सफाई वगैरह के तरीकों और दीगर रोक-थाम के उपायों से बीमारियों को जड़ से उखाड़ते हैं; शिक्षक और शिक्षाविद हो सकते हैं, जो सब उम्र के बच्चों से लेकर बालिग़ मर्द-औरतों तक को पढ़ाते हैं ; या नए जमाने की जानकारी वाले किसान बनकर नए वैज्ञानिक उपायों से पैदावार बढ़ा सकते और इस तरह देश की दौलत बढ़ा सकते हैंI इसी तरह के बहुतेरे काम हो सकते हैं।

मैं तुमसे जो कहना चाहता हूँ वह यह है कि हम उस बहुत बड़ी जीती जागती चीज के हिस्से हैं, जिसे समाज कहते हैं, जिसमे सब तरह के मर्द-औरतें और बच्चें हैं। हम इस बात को नज़रअंदाज नहीं कर सकते और अपनी मर्जी के मुताबिक़ जो चाहें वही नहीं करते रह सकते। यह तो वैसा ही होगा जैसे हमारी एक टांग बाकी जिस्म की परवाह किये बिना चलने का फैसला कर ले। इसलिए हमें अपने काम का डौल इस तरह बैठाना पड़ता है कि समाज को अपना काम निबटाने में मदद मिले, हिन्दुस्तानी होने की वजह से हमें हिन्दुस्तान में काम करना होगा। हमारे मुल्क में तरह तरह के तब्दीलियाँ होने जा रही हैं और कोई नहीं कह सकता की कुछ बरसों में इसकी शक्ल क्या होगी। लेकिन जिसे कुछ उपयोगी काम करने के ट्रेनिंग मिल चुकी है वह समाज का एक बेशकीमती सदस्य होता है।

मैंने यह सब सिर्फ इसलिए लिखा है कि तुम इसके बारे में सोच सको। बेशक मैं चाहता हूँ कि जब तुम बड़ी हो जाओ तो मजबूत बनो, अपने पैरों पर खडी हो सको और उपयोगी काम करने के लिए अच्छी तरह तालीम पा चुकी होओI तुम दूसरों पर मुनहसिर नहीं रहना चाहती। फैसला करने की अभी कोई जल्दी नहीं है।

अगर अपनी पढ़ाई के लिए तुम यूरोप जाना चाहो तो तुम्हे फ्रांसीसी भाषा अच्छी तरह से जाननी चाहिएI मैं यह भी चाहूँगा कि तुम जर्मन भी जान जाओ क्योंकि बहुत सी बातों के लिए यह काफी फायदेमंद है। लेकिन उसकी जल्दी नहीं है। उम्र जितनी कम होती है , भाषाएं सीखना उतना ही आसान होता है।

क्या तुम जानती हो कि अब तुम लगभग ठीक उसी उम्र की हो जो मेरी थी, जब मैं पहली बार दादू के साथ इंग्लैंड गया था और हैरो स्कूल में भर्ती कराया गया था। यह बहुत पुरानी बात है, 28 साल पहले की !

आज यहाँ बर्फ गिरी है और सारे पहाड़ बर्फ से फिर ढक गए हैं। इस खुशनुमा नज़ारे को देखने की खुशकिस्मती तुम्हे हासिल नहीं हो सकी।

मेरा ढेर सारा प्यार,

तुम्हारा प्यारा

पापू

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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Shyam Khaparde

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