श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह (2)”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक… 5 – मोह (2) ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

संसार में आस्था के आधार पर लोगों का वर्गीकरण तीन भागों में किया जाता है- आस्तिक (Theist), नास्तिक (Atheist) और यथार्थवादी (Agnostic) जिसे अज्ञेय वाद भी कहा जाता है। वास्तविकता यह है कि अधिकांश लोग जानते ही नहीं हैं कि वे पूरी तरह आस्तिक हैं या नास्तिक। ऐसे लोगों को अज्ञेयवादी कहा जा सकता है।

“मैं” को आत्म चिंतन से पहले यह निर्णय करना चाहिए कि उसकी आस्था ईश्वर में है या नहीं या वह दोनों याने ईश्वर में आस्था और अनास्था को नकारता है। एक बार यह निर्णय हो जाए तो “मैं” की यात्रा कुछ आसान होने लगती है। वर्तमान जीवन की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हम सर्कस के झूलों में कभी आस्तिक झूला पकड़ते हैं, कभी नास्तिक झूले में झूलते हैं और कभी अज्ञेयवादी रस्सी की सीढ़ी पर टंग जाते हैं। आगे बढ़ने के पूर्व निर्णय करना होगा कि हमारी आस्था का स्तर क्या है ?

पहले हम आस्तिकवादी के मोह से निकलने पर बात करेंगे। आस्तिकवादी को मोह से निकलना थोड़ा सरल है। आस्तिकवादी वह है जिसका ईश्वरीय सत्ता में अक्षुण्य विश्वास है। सनातन परम्परा अनुसार प्रत्येक जीवित में जड़ अर्थात पंचभूत प्रकृति और चेतन याने आत्मा-परमात्मा का अंश जीव रूप में विद्यमान है। आत्मा कभी नष्ट नहीं होती सिर्फ़ चोला बदलती है। पिछले जन्म के संस्कार नए जीवन की रूपरेखा तैयार कर देते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि “मैं” एक अविनाशी सत्ता का प्रतिनिधि है। उसी सत्ता से आया है और उसी सत्ता में विलीन हो जाएगा। उसने अपने सभी ऋणों के निपटान हेतु अनिवार्य कर्तव्यों का निर्वाह कर दिया है। कर्तव्यों के निर्वाह में उसे मोह की आवश्यकता थी-वह मोह यंत्र का अनिवार्य हिस्सा था, नहीं तो जैविकीय दायित्वों का निर्वाह नहीं कर सकता था।

“मैं” की जीविका निर्वाह में सबसे महत्वपूर्ण उसकी देह थी। उसका देह से मोह स्वाभाविक था। लेकिन वह तो पाँच प्राकृतिक तत्वों की देन है। “मैं” नहीं था तब भी प्राकृतिक तत्व थे। “मैं” नहीं रहेगा तब भी वे रहेंगे। अब देह जीर्ण शीर्ण दशा को प्राप्त होने लगी है। उसके रखरखाव के अलावा अन्य किसी प्रकार की आसक्ति की ज़रूरत देह को नहीं है। उसका पंचतत्व में विलीन होना अवश्य संभावी है, उस प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। जिसका नष्ट अटलनीय है-उससे मोह कैसा। यही तर्क धन, व्यक्ति, स्थान, सम्मान, यश सभी पर लागु होता है। ये सभी ही नहीं, बल्कि पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, तारे याने समस्त ब्रह्मांड नश्वर है। “मैं” की सत्ता उनके सामने बहुत तुच्छ है? “मैं” को मोह से मुक्त होना ही एकमात्र उपाय है। ताकि वह शांतचित्त हो ईश्वरीय प्रेम में मगन हो सके। इस तरह अस्तित्ववादी “मैं” की यात्रा थोड़ी आसान है।

अस्तित्ववादी “मैं” की यात्रा एक और अर्थ में आसान है। ईश्वर में विश्वास होने से उसका पुनर्जन्म में भी भरोसा रहता है। यह देह नष्ट हो रही है तो नई देह उसकी राह देख रही है। फिर एक नए सिरे से इंद्रियों भोग की लालसा और कामना उसे दिलासा सा देती हैं। यह सब ईश्वरीय विधान है। वह ऐसा सोचकर शांत चित्त स्थिति को प्राप्त करता रह सकता है। अनस्तित्व वादी की स्थिति इसकी तुलना में कष्टप्रद होती है।

नास्तिकता अथवा नास्तिकवाद या अनीश्वरवाद (Atheism), वह सिद्धांत है जो जगत् की सृष्टि, संचालन और नियंत्रण करनेवाले किसी भी ईश्वर के अस्तित्व को सर्वमान्य प्रमाण के न होने के आधार पर स्वीकार नहीं करता। (नास्ति = न + अस्ति = नहीं है, अर्थात ईश्वर नहीं है।) नास्तिक लोग भगवान के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण न होने कारण झूठ करार देते हैं। अधिकांश नास्तिक किसी भी देवी देवता, परालौकिक शक्ति, धर्म और आत्मा को नहीं मानते। भारतीय दर्शन में नास्तिक शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।

(1) जो लोग वेद को प्रमाण नहीं मानते वे नास्तिक कहलाते हैं। इस परिभाषा के अनुसार बौद्ध और जैन मतों के अनुयायी नास्तिक कहलाते हैं। ये दोनो दर्शन ईश्वर या वेदों पर विश्वास नहीं करते इसलिए वे नास्तिक दर्शन कहे जाते हैं।

(2) जो लोग परलोक और मृत्युपश्चात् जीवन में विश्वास नहीं करते; इस परिभाषा के अनुसार केवल चार्वाक दर्शन जिसे लोकायत दर्शन भी कहते हैं, भारत में नास्तिक दर्शन कहलाता है और उसके अनुयायी नास्तिक कहलाते हैं।

(3) ईश्वर में विश्वास न करनेवाले नास्तिक कई प्रकार के होते हैं। घोर नास्तिक वे हैं जो ईश्वर को किसी रूप में नहीं मानते। चार्वाक मतवाले भारत में और रैंक एथीस्ट लोग पाश्चात्य देशें में ईश्वर का अस्तित्व किसी रूप में स्वीकार नहीं करते।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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Subedarpandey

उत्कृष्ट सारगर्भित रचना प्रस्तुति अभिनंदन अभिवादन बधाई आदरणीय श्री द्वारा
——सूबेदार पाण्डेय कवि आत्मानंद जमसार सिंधोरा बाजार वाराणसी