श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “गुल ही गुल कब माँगे थे हमने…”।)
ग़ज़ल # 41 – “गुल ही गुल कब माँगे थे हमने…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
हम अकसर अपनी ज़िन्दगी से ऐसे मिले,
एक अजनबी जैसे किसी अजनबी से मिले।
गुल ही गुल कब माँगे थे हमने ख़ैरात में
ख़ार ही ख़ार बेशुमार मुहब्बत से मिले।
मिलना मजनू का लैला से सुनते आए हैं,
काश उसी तरह मेरा हमदम मुझसे मिले।
एक रेखा में मिलते सूरज चाँद और धरती
छा जाता ग्रहण जब वो इस तरह से मिले।
अकसर उपदेशों की बौछारों से नहलाते दोस्त,
बेहतर है आदमी कभी न ऐसे दोस्तों से मिले।
निकलना जन्नत से आदम-ईव का सुनते आए,
बाद उसके आदमी-औरत आकर जमीं से मिले।
मुहब्बत में मिलना भी जुर्म हो गोया ‘आतिश’
जानलेवा हुआ जिस बेरुख़ी से वो हम से मिले।
© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈