श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “जड़ें ज़मीन छोड़ती जा रहीं…”।)
ग़ज़ल # 62 – “जड़ें ज़मीन छोड़ती जा रहीं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
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ये ज़िंदगी बिना कोशिश बदल सकती नहीं ,
चलने दो जैसी बात अब चल सकती नहीं।
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जड़ें ज़मीन छोड़ती जा रहीं बिना पानी के,
संस्कार बिना संस्कृति संभल सकती नहीं।
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ख़्वाब में खाने से भूख मिट नहीं सकती,
जुमलों से दिया बाती जल सकती नहीं।
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ज़िंदगी को खेत में पसीना बहाना पड़ता है,
चमकती मेट्रो में जाकर टहल सकती नहीं।
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खुद्दार आतिश कहता वही जो लगता सही,
सोच किसी विचारधारा में ढल सकती नहीं।
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© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈