श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ५ ☆
☆ लघुकथा ☆ ~ भोर का तारा ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆
भोर का तारा अब भी एकटक निहार रहा था। नन्हा गोलू चुप होने का नाम नही ले रहा था। मानों वह चीख चीखकर कह रहा था कि क्या मौसी! तुम भी मुझको छोड़कर चली जाओगी।
कुछ ही महीनों पहले की बात थी, सब कुछ ठीक ठाक था। घर में दुबारा मंगल बधाई बजने को थी, लेकिन उपर वाले को न जाने क्या मंजूर था कि सुमन की खुशियाँ धरी की धरी रह गयी। नन्हें आगन्तुक के आने से पहले ही वह चल बसी। गोलू अब इस दुनियां में बिना माँ के होकर रह गया था। ईश्वर को गोलू पर थोड़ी दया आयी तो उसे मौसी की गोद मिली तो उसको थोड़ी राहत मिली।
लेकिन आज एक बार फिर तेज- तेज बज रहे बैंड बाजों की आवाज ने गोलू को डरा दिया। गोलू आज बिल्कुल ही नही सोया। बार बार चिल्ला देता। बड़ी मुश्किल से उसकी कोई दूसरी चचेरी मौसी ने उसे पकड़ी तो जाकर, कहीं शादी की रस्म पूरी करने के लिये बिंदु मंडप में बैठ पायी। सिंदूरदान होने के बाद जब वह वापस कुछ रस्म अदाएगी के लिये कमरे में आयी तो गोलू उसे देखकर चिल्ला पड़ा, और इसबार उसकी गोद में पहुँच कर ही चुप हुआ। उसे आज नींद नही आयी। पूरी रात जगा ही रहा। शायद उसे इस बात का आभास हो चुका था कि उसकी मौसी भी उसे छोड़कर जाने वाली है।
बिंदु ने भी दौड़ कर उसे गले लगा लिया। सूरज निकलने से पहले ही बिदाई का मुहूर्त था। भोर का तारा अभी भी अकेले एक टक सब कुछ देख रहा था। बिंदु की विदाई की रस्म शुरू हो गयी थी। सभी रो रहे थे और गले लगकर बिंदु से मिल रहे थे। कार दरवाजे पर खड़ी हो गयी थी। अब विन्दु को इसी कार में बैठना था। किसी अंजान गोद में फंसा, गोलू एकदम से चिल्ला उठा, मानों वह कह रहा हो, मौसी.. क्या तुम भी मुझे छोड़कर चली जाओगी। बिंदु अपना बड़ा घुंघट हटाते हुए, पीछे मुड़ी तो गोलू, विवेक के गोद में था।
गोलू को गोद में लिये हुए विवेक यह कहते हुए कार में बैठा कि विन्दु तुम परेशान मत होओ, मत रोओ। गोलू भी हमारे साथ ही चलेगा। अब गोलू चुप हो गया था। फूलों से सजी कार आगे की ओर बढ़ गयी और धीरे -धीरे आँखों से ओझल हो गयी। आसमान में लालिमा छाने लगी थी। भोर का तारा भी हँसता हुआ वापस नीलगगन में समाते हुए आँखों से ओझल हो गया।
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© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”
लखनऊ, उप्र, (भारत )
दिनांक 22-02-2025
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈