श्री संजय भारद्वाज
☆ संस्मरण ☆ हिंदी आंदोलन परिवार के पच्चीस वर्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆
(हिंदी आंदोलन परिवार के स्थापना दिवस पर ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं)
आज 30 सितंबर 2020….आज ही के दिन 30 सितंबर 1995 को हिंदी आंदोलन परिवार की पहली गोष्ठी हुई थी। मुझे याद है मैं और सुधा जी नियत समय से लगभग डेढ़ घंटे पहले महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के सभागार में पहुँचे थे।
सरस्वती जी का चित्र, हार-फूल, दीप प्रज्ज्वलन का सारा सामान साथ था। जलपान के लिए इडली-चटनी, नमकीन, गुलाब जामुन, पेपर प्लेट, नेपकिन आदि भी साथ थे। सभागार के प्रवेशद्वार के सामने की जगह हमें गोष्ठी के लिए उपयुक्त लगी किंतु वहाँ धूल बहुत अधिक थी। सुधा जी ने झाड़ू थामी और जुट गईं स्वच्छता अभियान में।
सभागार में दरी नहीं थी। बाजीराव रोड पर ‘घर-संसार’ नामक दुकान थी। वे मंडप का सामान, शादी-ब्याह में लगनेवाली वस्तुएँ किराये पर देते थे। मैं वहाँ पहुँचा। दोपहर के भोजन के लिए दुकान बंद थी। बड़ी व्यग्रता से बीता दुकान खुलने तक का समय। बड़े आकार की एक मोटी दरी किराये पर ली। निर्देश यह कि दुकान फलां बजे बंद हो जायेगी, कल सुबह दरी लौटाई तो किराया दोगुना हो जायेगा। दरी में वज़न भी अच्छा-खासा था पर गोष्ठी के आयोजन का जुनून ऐसा कि दरी को कंधे पर लादकर तेजी से सभागार पहुँच गया।
(श्रीमती सुधा संजय भारद्वाज)
हमारे विवाह को सवा तीन वर्ष बीत चुके थे। सुधा जी इस जुनून से परिचित होने लगी थीं। मेरे सभागार पहुँचने तक वे निर्धारित स्थान को स्वच्छ कर दीप प्रज्ज्वलन की तैयारी कर रही थीं। हमने दरी के दो छोर थामे और मिलकर दरी बिछाई। चार बजने को था। रचनाकार मित्रों को गोष्ठी के लिए चार बजे का समय दिया था। हमने हाथ से पत्र लिखकर लोगों को आमंत्रित किया था। प्रेस विज्ञप्ति बनाई थी जिसे एकाध समाचार पत्र ने संक्षिप्त सूचना के अंतर्गत प्रकाशित किया था।
राष्ट्रभाषा सभा के लक्ष्मी रोड स्थित पुस्तक बिक्री केंद्र और समिति के कार्यालय में बड़े कागज पर हाथ से पोस्टर बनाकर चिपकाया था। उन दिनों मोबाइल तो थे नहीं, टेलीफोन भी हर घर में नहीं होता था। अतः कितने लोग आएँगे, आएँगे भी या नहीं, इसकी कोई जानकारी नहीं थी।
जानकारी भले ही नहीं थी पर “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ पर विश्वास था। विश्वास फलीभूत भी हुआ। समय पर मित्र आने लगे। आज के मुकाबले तब लोग समय के अधिक पाबंद थे। लगभग पचहत्तर वर्षीय श्रीकृष्ण केसरी नामक एक सज्जन अपनी धर्मपत्नी के साथ उरली कांचन जैसे दूर के इलाके से आए थे। सर्वश्री/ सुश्री मधु हातेकर, डॉ. निशा ढवले, डॉ. कांति लोधी, राजेंद्र श्रीवास्तव, महेंद्र पंवार, कृष्णकुमार गुप्ता जैसे कुछ उपस्थितों के नाम याद हैं। संभवतः थोड़े समय के लिए समिति के तत्कालीन संचालक डॉ. सच्चिदानंद परलीकर जी भी रुके थे। कुल जमा पंद्रह लोग थे। मज़े की बात ये थी कि यह आंदोलन की पहली और अब तक के इतिहास में अंतिम गोष्ठी थी जिसमें रु. 15/- सहभागिता शुल्क लिया गया था।
इस काव्य गोष्ठी के लिए उस समय तक विशुद्ध नाटककार रहे मेरे जैसे निपट गद्य लिखनेवाले ने ‘पांचाली’ नामक अपने जीवन की दूसरी ( उससे पूर्व ग्यारहवीं में ‘गरीबी’ शीर्षक से एक कविता लिख चुका था।) कविता प्रस्तुत की थी। सुधा जी की “गुमशुदा की तलाश’ कविता याद है। हम दोनों की स्मृति में रह गई डॉ. निशा ढवले की कविता “दरवाज़े।’
संचालन को बहुत सराहना मिली। विनम्रता और ईमानदारी की बात है कि संचालन की कोई विशेष पूर्व तैयारी न तब की थी, न आज करता हूँ। आयोजन सफल रहा।
आज पीछे मुड़कर देखता हूँ कि गत 25 वर्षों में आंदोलन परिवार की 250 से अधिक गोष्ठियाँ और लगभग 50 ई-गोष्ठियाँ हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त लगभग 100 अन्य आयोजन-संगोष्ठी, समाजसेवी उपक्रम और महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के लिए प्रकल्प आदि के रूप में हो चुके हैं।
समय के साथ व्यक्ति परिपक्व होता है, चिंतन और कृति में थोड़ी स्थिरता आती है। अन्य मामलों में तो ये लागू हुई पर जाने क्या है कि आंदोलन के लिए जो जुनून तब था, उससे अधिक आज है। “कबिरा खड़ा बाजार में लिये लुकाठी हाथ, जो घर फूँके आपणा चले हमारे साथ।’ इतनी बार घर फूँका कि आग भी थक गई पर हर बार ब्रह्मा ही चिंतित हुए और इस निर्धन दंपति के लिए फिर घर खड़ा कर दिया। अब तो आंदोलन के समर्पित साथियों की इतनी भुजाएँ हो चुकी हैं कि हम सबके सामूहिक जुनून और सामुदायिक कृति से इस परिवार की चर्चा अखिल भारतीय स्तर पर होने लगी है।
अखिल भारतीय से एक बात और याद आई। आयु और पुणे का प्रभाव ऐसा कि पहली गोष्ठी के निमंत्रण पर संस्था का नाम ‘अखिल भारतीय हिंदी आंदोलन’ लिखा था। समय ने सिखाया कि हिंदी में राष्ट्रीय परिवेश अंतर्निहित है। अतः हिंदी आंदोलन पर्याप्त है । अब देश के अनेक भागों से “आप हिंदी आंदोलन वाले संजय भारद्वाज बोल रहे हैं..’ पूछनेवाले फोन आते हैं तो लगता है कि संस्था का काम ही उसका कार्यक्षेत्र तय करता है।
मित्रो! आज 30 सितंबर 2020 को हम 26 वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। हमसे अब और अधिक सकारात्मक क्रियाशीलता की आशा की जाएगी। आइए, बनाए और टिकाए रखें हमारे जुनून को। निरंतर स्मरण रखें हमारे घोषवाक्य “हम हैं इसलिए मैं हूँ’ याने “उबूंटू’ को।
उबूंटू!
© संजय भारद्वाज
☆ संस्थापक- अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
बहुत बहुत बधाई??
ईश्वर सफलताओं का सिलसिला बनाये रखें।?