डॉ . प्रदीप शशांक
होली पर विशेष – सामाजिक समरसता
प्राचीन काल में आदमी का जीवन पूरी तरह प्रकृति से जुड़ा था ।यही वह समय था , जब उसने ऋतुओं का धूमधाम से स्वागत करने की परम्परा कायम की ओर इसकी एक पुरातन कड़ी है होली । यह संधि ऋतु यानी सर्दी के जाने और गर्मी के आने का पर्व है । नये धान्य की आगवानी का उल्लास पर्व है होली । इसकी आहट तो वसंत के आगमन से होने लगती है । आज के युग में मनुष्य दिनों दिन प्रकृति से दूर होता जा रहा है तथा पर्यावरण के रक्षक जंगलों को मनुष्य अपने स्वार्थ की खातिर काटकर जगह जगह कांक्रीट के जंगल बढ़ाता जा रहा है जिससे पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ा है ।
प्रकृति से दूर होने पर होली के मायने भी बदल गये हैं । कभी होली कृष्ण के समान ललित मानी जाती थी , परन्तु बदलते हालात के साथ अश्लीलता , अशिष्टता और घिनोनापन जुड़ गया है । पारम्परिक रंग गुलाल , अबीर से होली खेलने के स्थान पर ग्रीस , तारकोल , आइल ,सिल्वरपेन्ट के साथ ही नाली के कीचड़ से होली खेलने वाले बढ़ते जा रहे हैं ।युवतियों के दुपट्टे खींचने और बुजुर्गों की टोपियां उछालकर मजा लेने वाले भी कम नहीं हैं ।
होली जो सामाजिक समरसता का प्रतीक हुआ करती थी, अब बदला लेने के पर्व में तब्दील होती जा रही है । एक दूसरे से दुश्मनी के फलस्वरूप होली की आड़ में इस दिन किसी पर तेजाब फेंकना या छुरा चाकू के वार से खून की होली खेलने का पर्व होता जा रहा है होली ।सच कहा जाये तो ये तत्व होलिहार हैं ही नहीं, ये हुड़दंगिए हैं, जिनमें वसंत का रस लेने की क्षमता नहीं है । होलिहार तो अपनी शालीन ठिठोली, मस्ती और उल्लास से प्रकृति की मादक अंगड़ाई की मिठास बांटते हैं । प्रेम और सामाजिक मिलन के इस पर्व की महत्वता को बचाने और आगे आने वाली पीढ़ी को इसके वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए हमारा कर्तव्य है कि हम वैमनस्यता को त्यागकर भाईचारे के साथ होली मनायें ।
© डॉ . प्रदीप शशांक
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002