श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गं ध“।)
आप सुगंध कहें या खुशबू, किसे महकता वातावरण पसंद नहीं। बात चाहे वादियों और फिज़ाओं की हो, अथवा गंधमादन पर्वत की, सुंदरता और मादकता को न तो आप परिभाषित कर सकते हैं, और न ही उसे किसी तस्वीर में उतार सकते हैं। किसी बदन की खुशबू और किसी गुलाब की महक किसी नुमाइश की मोहताज नहीं। कब ‘आंख ‘ सूंघ ले, और कब ” नाक ‘ देख ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। एक सस्ता सा शेर भी शायद यही बात दोहरा रहा है ;
सच्चाई छुप नहीं सकती
बनावट के उसूलों से।
कि खुशबू आ नहीं सकती
कभी काग़ज़ के फूलों से।।
सभी प्राणियों में सूंघने की शक्ति होती है, किसी में कम, किसी में ज्यादा। जिस तरह लोग स्वाद के शौकीन होते हैं, उसी तरह कई लोग खुशबू के भी शौकीन होते हैं। कजरा अगर सुंदरता का प्रतीक है तो गजरा खुशबू का। रसिकों का क्या है, वे तो सुनने के भी शौकीन होते हैं ;
पायल वाली देखना,
यहीं तो कहीं दिल है ;
पग तले आए ना।।
रस और गंध का गुण धर्म राजसी है। स्वर्ग में राजसी सुख है, वैभव है, नृत्य और संगीत है। हम मंदिर में अपने इष्ट को पुष्प और गंध दोनों अर्पित करते हैं। धूप बत्ती और कर्पूर आरती का भी प्रावधान है। गंध से आसुरी शक्तियां पास नहीं फटकती। सुगंधित पदार्थों और जड़ी बूटियों से ही यज्ञ और हवन संपन्न होते हैं।
पुष्प समर्पयामि। गंधं समर्पयामि ! चित्त का शांत होना ही शांति का प्रतीक है।
सूंघने का विभाग नाक का है। एक विभाग के भी दो भाग हैं, जिनमें वेंटिलेटर्स लगे हैं। हमारे फेफड़ों में प्राणवायु का प्रवेश और कार्बन डाइऑक्साइड की निकासी भी तो इसी नाक से होती है। नस नाड़ियों का जाल हमारे शरीर का नेटवर्क है। सूर्य चंद्र नाड़ी का अनुपात शरीर को गर्म ठंडा रखता है। संत कबीर तो इड़ा पिंगला की बात करते करते सीधे सुषुम्ना यानी सहज समाधि तक पहुंच जाते हैं। ।
यह हमारा शरीर भले ही हाड़ मांस का पुतला हो, लेकिन अगर किसी के बदन में खुशबू है तो किसी के शरीर में बदबू भी हो सकती है, क्योंकि हमारी प्रवृत्ति भी सात्विक, राजसी और तामसिक होती है तामसी पदार्थों के सेवन से बदन में खुशबू नहीं, बदबू ही आती है। जैसा अन्न वैसा मन ;
फूल सब बगिया खिले हैं
मन मेरा खिलता नहीं क्यों।
फूल तो खुशबू बिखेरें
मैं रहा बदबूऍं क्यों।।
हमारे ही शरीर में आभा भी है और ओज भी, जिसे विज्ञान की भाषा में aura कहते हैं। किसी के आने पर सजना, धजना, संवरना भी प्रसन्नता का ही द्योतक होता है। बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है। खुशी से हमारा चेहरा खिलता क्यों है, जब उदास होते हैं, तो मुरझाता क्यों है।
चमन में बहार है तो खुशबू है। जिस घर में महक और खुशबू जैसी बहनें हों, वहां तो बहार ही बहार है। किसी के पड़ोसी अगर मिस्टर गंधे हैं तो किसी के समधी श्री सुगंधी हैं। एक सुगंधा मिश्रा है, जो आज तक यह तय नहीं कर पा रही, कि वह एक अच्छी गायिका है या मिमिक्री आर्टिस्ट। ।
अक्सर, जब सर्दी जुकाम हो जाता है, तो हमारी सूंघने की शक्ति काम नहीं करती। हम समझते हैं, रसोई में अभी दाल ही नहीं गली, जब कि दाल जलकर खाक हो चुकी होती है। पेट में जब चूहे कूदने लगते हैं, तो दूर किसी झोपड़ी से चूल्हे की आग में सिक रही रोटी की महक, छप्पन भोग को मात कर देती है।
हमारी माटी की गंध का भी जवाब नहीं। तपती गर्मी के बाद, जब बारिश की कुछ बूंदें, धरती पर पड़ती है, तो वह सौंधी सौंधी खुशबू, बड़ी प्यारी लगती है। नेकी ही खुशबू का झोंका है और बदी, असह्य बदबू।
षडयंत्र की बू सभी को आ जाती है लेकिन अच्छाई कभी अपना प्रचार नहीं करती। फूल कभी नहीं कहता, मुझे सूंघो, उसकी खुशबू चलकर आपके पास आती है। हमारा स्वभाव ही हमारी असली पहचान है, डियोड्रेंट और आर्टिफिशियल फ्रेगरेंस ( कृत्रिम सुगंध ) नहीं।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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