श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काग के भाग”।)
विश्व की श्रेष्ठ रचनाएं, जिन्हें आज हम क्लासिक्स कहते हैं, काव्य के रूप में ही प्रकट हुई हैं। जो भाव और भाषा का प्रवाह काव्य में देखने में आता है, वह गद्य रूप में संभव ही नहीं। दांते (Dante) की डिवाइन कॉमेडी हो या चॉसर (Chaucer) की द कैंटरबरी टेल्स, शेक्सपीयर की कॉमेडी हो या ट्रेजेडी, कालिदास, भवभूति, और वाल्मिकी से लगाकर तुलसीदास जी की रामचरित मानस भी काव्य रूप में ही प्रकट हुई हैं।
भाव की जितनी सहज अभिव्यक्ति काव्य रूप में प्रकट होती है, वह गद्य में देखने को नहीं मिलती। जब भाव और कल्पना को अतिशयोक्ति का साथ मिल जाता है तब ही मेघदूतम् और कुमारसम्भव जैसी कालजयी रचनाएं जन्म लेती हैं। ।
भक्तिकाल को कभी साहित्य का स्वर्ण काल कहा गया था। आज भाषा और तकनीक बहुत विकसित हो गई है, आप
सिर्फ बोलते जाएं, आज के डिजिटल गणेश सब कलमबद्ध करते चले जाएंगे। लेकिन आज आप वेदव्यास, कालिदास और तुलसीदास कहां से लाएंगे। अष्ट छाप के कवि सूरदास प्रज्ञा चक्षु अर्थात् जन्मांध थे लेकिन उनके काव्य ने भक्ति रस की ऐसी गंगा बहाई कि आंख वालों के चक्षुओं से अश्रु धारा बह निकली।
नारद भक्ति सूत्र की पूरी नवधा भक्ति आप भक्ति काल के कवियों में स्पष्ट देख और अनुभव कर सकते हैं। कहीं दास्य भाव है तो कहीं सख्य भाव। आप इसे सच्चाई कहेंगे अथवा अतिशयोक्ति जब मीरा खुले आम घोषित करती है कि ;
मेरे तो गिरधर गोपाल
दूसरो न कोई।
जा के सिर मोर मुकुट
मेरो पति सोई। ।
एक होता है भक्त कवि और एक होता है दरबारी कवि। भक्त कवि केवल अपने इष्ट का गुणगान करता है, जब कि दरबारी कवि अपने आश्रयदाता का। दरबारी कवियों की रचनाओं ने साहित्य में स्थान पा लिया, जब कि भक्त कवियों की रचनाएं आज भी लोगों की जुबान पर है। रामायण और सुंदर कांड का आज भी घर घर पाठ होता है। डर लगे तो हनुमान चालीसा गा। किसी ने सूर, सूर, तुलसी शशि…. यूं ही नहीं कहा।
सूरदास कोई काल्पनिक व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से जो देखा और अनुभव किया, उस अनुसार ही कृष्ण की बाल लीलाओं का अनुभव किया होगा। दर्द गोपियों का है, लेकिन भाव विभोर शब्द सूरदास जी के। समर्पण भक्ति की यह अद्भुत मिसाल है ;
मधुबन, तुम क्यौं
रहत हरे।
विरह वियोग स्याम सुन्दर के,
ठाढ़े क्यों न जरे। ।
भक्ति रस, रस की खान है। भक्ति की भाव गंगा में बहते हुए शब्द काव्य बनकर प्रकट हो जाते हैं, फिर चाहे वे गुजरात के नरसिंह भगत हों, अथवा जगन्नाथ पुरी के चैतन्य महाप्रभु। भक्तिभाव में जो शरणागत हो गया, वह फिर कवि नहीं, संत हो जाता है। उसकी वाणी में साक्षात सरस्वती विराजमान हो जाती है। उसके केवल शब्द ही अलंकृत नहीं करते, उसके भाव भी झंकृत कर देते हैं। कवि की कल्पना और भाव देखिए ;
वा छबि को रसखान बिलोकत।
वारत काम कला निधी कोटी। ।
काग के भाग बड़े सजनी।
हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी।।
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