श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ये जो है जिन्दगी”।)
जीवन कहें या जिंदगी, इसको परिभाषित करना इतना आसान नहीं, क्योंकि जिंदगी तो हमें जीना है, हर हाल में, हर शर्त में, कभी हंसते हंसते, तो कभी रोते रोते। रोएं हमारे दुश्मन, हम तो बस हंसते मुस्कुराते ही जीवन के चार दिन गुजार दें।
हेमंत कुमार तो कह गए हैं, जिंदगी प्यार की दो चार घड़ी होती है, लेकिन हमारा कहां केवल प्यार से काम चल पाता है, कुछ लोग इंतजार ही करते रह जाते हैं, पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही।।
कुछ लोग सदाबहार होते हैं, जिनके चेहरे तो दिन भर चांदनी के फूल की तरह खिले रहते हैं और रात में भी वे रात रानी की तरह महकते रहते हैं। खुशबू और ताजगी ही उनकी पहचान होती है। वे नफरत करने वालों के सीने में भी प्यार भरते चले हैं। प्यार बांटते चलो।
माना कि बहुत कठिन है डगर पनघट की, फिर भी गोरी भर ही लाती पनघट से मटकी। क्योंकि उसका ध्यान उधर होता है, जिधर ;
दूर कोई गाये,
धुन ये सुनाये।
तेरे बिन छलिया रे
बाजे ना मुरलिया रे।।
सन् १९८४ में दूरदर्शन पर कुंदन शाह निर्देशित एक हास्य धारावाहिक आया था, जिसका शीर्षक ही था, ये जो है जिंदगी ! किसकी जिंदगी में खट्टे मीठे अनुभव नहीं होते, रोजमर्रा की जिंदगी में नोंक झोंक नहीं होती। जीवन में संघर्ष भी है और चुनौतियां भी, जिनका सामना आप चाहे हंसकर करें अथवा रोकर और परेशान होकर।
एक कड़वे सच से हम सभी को गुजरना भी पड़ता है, laugh and the world laughs with you, and weep, and you are alone to weep. फिर भी गम की अंधेरी रातों से गुजरते हुए भी दूसरों के आंसू पोंछने वाले लोग भी कई लोग हमारे बीच हैं। दुनिया में इतना गम है, मेरा गम कितना कम है।।
यह भी सच है कि बनावटी हँसी से जिंदगी नहीं काटी जाती, लेकिन दूसरे की खुशी और गम में बराबरी से शामिल तो हुआ ही जा सकता है। व्यर्थ के राग द्वेष को भूल एक दीया प्यार और खुशी का तो जलाया ही जा सकता है।
कभी राजनीति पर हंसी आती थी, आज की राजनीति पर रोना आ रहा है। लोग आपस में मिलते थे तो अपने सुख दुख और परिवार की बात करते थे, आजकल व्यर्थ ही राजनीति पर बहस की जा रही है, लोगों को बांटा जा रहा है। आपसी असहमति का ऐसा दौर पहले कभी नहीं देखा।।
कभी साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता था, आजकल राजनीति समाज का दर्पण बन रही है। प्रचार और दुष्प्रचार मीडिया और सोशल मीडिया का दिन भर का नाश्ता, भोजन, लंच और डिनर सब कुछ हो गया है।
क्या हमारे भोजन में आपसी प्रेम की मिठास है। एक हाथ में मोबाइल, दूसरे हाथ से भोजन और आंखों के सामने बुद्धू बक्सा आखिर कब तक।
हमें एक ब्रेक की आवश्यकता है। हमारे जीवन से सहज हास्य गायब होता चला जा रहा है। अब कहां नुक्कड़ और जाने भी दो यारों जैसे हास्य धारावाहिक! सेक्स, हिंसा और पॉर्न के साथ लोगों को एक दूसरे से दूर करती, आपस में वैमनस्य फैलाती राजनीति के आगे तो बेचारी डायन महंगाई भी थक हार कर भुला दी गई है। महंगाई अच्छी है।।
हमारी मजबूरी यह है कि हम इसी रास्ते पर और आगे बढ़ना चाहते हैं, भूले बिसरे गीत, आदर्श प्रधान फिल्में, मधुर कर्णप्रिय संगीत और सहज हास्य हमें अपनी ओर पहले की तरह आकर्षित नहीं कर पाता। आज रह रह कर ऑफिस ऑफिस जैसे धारावाहिक और जसपाल भट्टी का उल्टा पुल्टा याद आता रहता है, जिसमें व्यंग्य था, विसंगति थी, सहज हास्य का पुट था, और सार्थक संदेश भी था।
आगे बढ़ना गलत नहीं, लेकिन गलत रास्ते पर चलने में भी समझदारी नहीं। जब जीवन से आपसी प्रेम और सहज हास्य गायब हो जाएगा, तो चारों ओर, लोगों को आपस में बांटने वाली कुत्सित राजनीति का ही साम्राज्य हो जाएगा। हमें जीवन में दूसरों के बजाय अपने आप पर हंसना सीखना पड़ेगा। दूसरों के नहीं, अपने दोष देखने पड़ेंगे और अपने स्वस्थ मनोरंजन के लिए कला, संगीत और सहज हास्य की शरण में जाना पड़ेगा। फेसबुक के दर्शकों की नजर शायद नजरबट्टू जैसे हास्य कार्यक्रम पर पड़ी हो, जो शायद भविष्य में ऑफिस ऑफिस अथवा उल्टा पुल्टा की जगह ले ले।
हास्य का परिपक्व होना बहुत जरूरी है। राजनीति तो परिपक्व होने से रही, कुछ वापस के. बी.सी. और कुछ कॉमेडी विथ कपिल की शरण में चले जाएंगे, वर्ना हॉट स्टार और नेटफ्लिक्स तो जिंदाबाद है ही।।
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