श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)
अभी अभी # 124 ⇒ ∆ भुट्टा ∆… श्री प्रदीप शर्मा
बारिश का मौसम भुट्टे का मौसम होता है। गन्ने की तरह भुट्टे भी खेत में ही पैदा होते हैं। गन्ना अगर मीठा होता है तो भुट्टे में भी दूध की मिठास होती है। गन्ने का अगर गुड़ बनता है तो मक्के की रोटी बनती है। भुट्टे के दानों को ही मक्का कहते हैं। ठंड का मौसम आते ही मुंह पर मक्के की रोटी और सरसों के साग का स्वाद उतर आता है।
मक्का, ज्वार और बाजरा खड़ा अनाज है, इनमें गेहूं की तुलना में अधिक पौष्टिक तत्व और फाइबर होता है। जो मेहनत करते हैं, वे ही इसे पचा सकते हैं। हमने चने को जान बूझकर छोड़ दिया है क्योंकि आप हरे छोड़ तो आसानी से खा सकते हैं, लेकिन जब सूखकर ये चना बन जाते हैं तो इन्हें चबाना लोहे के चने चबाने के समान ही होता है। ।
अनार अगर एक फल है तो भुट्टा अनाज की श्रेणी में आता है। दोनों का परिधान इनकी विशेषता है। अनार का दाना दाना एक कछुए के अंगों के समान सुरक्षित और किसी अभेद्य किले के समान बाहर से एक मोटी परत द्वारा ढंका हुआ होता है। भुट्टों की तो पूछिए ही मत। इनके वंश में कोई बेनजीर पैदा नहीं होती, सब भुट्टे ही पैदा होते हैं। लेकिन शर्मीले इतने कि नई नवेली दुल्हन की तरह आवरण में आवरण से नख शिख तक शालीनता से ढंके हुए। भुट्टे के दानों तक पहुंचने के लिए प्रशासन भी आपकी मदद नहीं कर सकता और मजबूरी में आपको दुशासन बनना ही पड़ता है। कभी भुट्टे के पांव पकड़ने पड़ते हैं तो कभी चोटी। इतना बढ़िया प्राकृतिक पैकिंग, आखिर किसी की नजर लगे भी तो कैसे।
अपने आवरण से जुदा होते ही एक भुट्टे की किस्मत भी जुदा जुदा हो जाती है। किसी को सिगड़ी की आग में भून लिया जाता है तो किसी को किसनी में किसकर उसका किस बना लिया जाता है। किसी को भुट्टे का किस पसंद होता है तो कोई सिके हुए भुट्टे पर नमक और नींबू लगाकर, फिर प्रेम से उसे मुंह लगाते हैं। आवश्यकता आविष्कार की जननी है।
भुट्टे के लड्डू, भुट्टे की कचौरी और भुट्टे के पकौड़ों की भी अपनी अलग ही कहानी है। ।
कॉर्न की तरह ही एक बेबी कॉर्न भी होता है लेकिन हमारे घरों के बच्चे ना जाने क्यों पॉप कॉर्न पर फिदा हैं। जिसे आम भाषा में मक्के की धानी कहते हैं वही किसी मॉल के पीवीआर अथवा थिएटर में दो सौ रुपए में कॉम्बी कॉर्न के नाम से बेचा जाता है।
थियेटर की फिल्मों का यह कॉर्न कल्चर कब पॉर्न कल्चर बन जाता है पता ही नहीं चलता।
जब बचपन में हमारी नर्सरी राइम पानी बाबा आ जा, ककड़ी भुट्टा ला जा, होती थी, हम समझते थे ककड़ी और भुट्टे भी ओलों की तरह आसमान से ही टपकते होंगे। भुट्टे को छोड़ मैगी और पास्ता खाने वाली हमारी आज की पीढ़ी इतनी भोली भी नहीं। उसने भुट्टे के खेत भले ही नहीं देखे हों, कॉमिक्स और फिल्मों में एलियंस जरूर देखे हैं।।
बारिश है, सुहाना मौसम है, क्यों न किसी छुट्टी के दिन बच्चों को फिल्म और मोबाइल से दूर किसी खेत में मियां भुट्टो से मिलाया जाए। स्वदेशी में विदेशी का तड़का तो वैसे भी लग ही चुका है। देसी भुट्टे की जगह अमरीकन भुट्टा भी हमारी धरती पर अपनी जड़ें जमा चुका है। नाम बड़े और इनके दर्शन भी आजकल मॉल में ही अमेरिकन कॉर्न के रूप में होते हैं और वह भी मक्खन में। भुट्टे के किस की पसंद में हमारी पसंद देसी भुट्टे की ही है, अमरीकन भुट्टे के किस में वह स्वाद कहां।
जो स्वाभाविक मिठास देसी भुट्टे में है, वह मीठे अमरीकन भुट्टे में नहीं। ।
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