श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मस्ती की पाठशाला“।)
बचपन एक ऐसी पाठशाला है, जहां मस्ती सिखाई नहीं जाती, लेकिन पाई जाती है। आप यह भी कह सकते हैं, मस्ती, बचपन का दूसरा नाम है। मस्ती हर भाषा में होती है, हर उम्र में होती है, लेकिन मस्ती शब्द, किसी शब्द कोश में नहीं, इस शब्द का कोई पर्याय नहीं, इस शब्द का कोई अनुवाद नहीं, तर्जुमा नहीं।
बच्चा मस्ती नहीं करता। बच्चा अपने आप में, मस्त रहता है। मैं अगर कहूं, मस्ती डिवाइन (divine) होती है, तो यह गलत है, क्योंकि डिवाइन तो बच्चा होता है। हां, हम यह जरूर कह सकते हैं, मस्ती का दूसरा नाम बचपना है।।
बच्चों के लिए खेल ही मस्ती है। जब कि हमारे लिए मस्ती एक खेल है।
दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। जो अंतर डिवाइन और वाइन में है, वही अंतर एक बच्चे की मस्ती और संसारी मस्ती में है।
एक बच्चा अपने खेल में मस्त रहता है। मुझे जब मस्ती करनी होती है, मैं एक बच्चे के साथ बच्चा बन जाता हूं, बच्चा खुश हो जाता है, एकदम चहक उठता है, आओ अपन मस्ती करें। उसका आशय उस खेल से होता है, जो आपको एक दूसरी ही दुनिया में ले जाता है। इस संसार में एक संसार बच्चों का भी होता है, जिसमें बड़ों का प्रवेश वर्जित होता है।
अपनी उम्र घटाइए, कभी बच्चा तो कभी घोड़ा और ऊंट बन जाइए, और आसानी से प्रवेश पा जाइए।।
मस्ती एक शारीरिक, सांसारिक नहीं, भौतिक और बाहरी नहीं, आंतरिक अवस्था है।
मस्ती कोई बच्चों का खेल नहीं, क्योंकि बच्चों का खेल तो खेलना हम जानते ही नहीं। बच्चों की दुनिया में राग द्वेष, भूख प्यास, अमीरी गरीबी, धर्म और मजहब तथा अपना पराया होता ही नहीं। हां, पढ़ लिखकर, अपने पांव पर खड़े होकर, वह भी जान जाता है, जिंदगी क्या है, दुनियादारी क्या है और बाहरी मस्ती क्या है।
कबीर साहब कह गए हैं ;
मन मस्त हुआ तब क्यों बोले !
हीरा पाया गांठ गठियायो,
बार बार बाको क्यों खोले।
हलकी थी तब चढ़ी तराजू
पूरी भई, तब क्यों तौले।।
हंसा पाये मानसरोवर
ताल तलैया क्यों डोले।
तेरा साहिब घर माहीं
बाहर नैना क्यों खोले।।
कहै कबीर सुनो भाई साधो
साहब मिल गए तिल ओले।।
सत् चित् और आनंद ही तो वह मस्ती है, जिसे बचपन में पीछे छोड़ हम, तू चीज बड़ी है मस्त, मस्त में उलझे हैं। अब पुनः बालक बनने से तो रहे, तो क्यों न फिर कबीर की बात ही मान ली जाए।
तेरा साहिब घर माहीं
साहब मिल गए तिल ओले
जी हां वही ओले ओले ! सदगुरु कुछ नहीं करता, एक डॉक्टर की तरह आंख का भ्रम और माया रूपी तिल निकाल देता है, और आपको वह सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसे मस्ती कहते हैं। मस्ती की पाठशाला में आपका स्वागत है।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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