श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सिमटती दीवारें”।)
जब घर में बच्चे होते हैं,छोटा घर भी बड़ा लगने लगता है । बच्चे बड़े होने लगते हैं । समय के साथ,ज़रूरत के साथ, घर भी बड़ा होने लगता है । अचानक बच्चे बहुत बड़े हो जाते हैं । घर में नहीं समाते । उनके पर लग जाते हैं । वे परदेस चले जाते हैं । घर फिर छोटा हो जाता है ।बच्चों के बिना, घर बहुत ही छोटा हो जाता है ।
पहले घर, सिर्फ़ घर नहीं होता था,घर के साथ आँगन भी होता था,जिसमें आम,नीम,जाम और जामुन के पेड़ भी होते थे । आँगन में बाहर खाट पड़ी रहती थी,बच्चे खेलते रहते थे,सुबह-शाम दरवाज़े पर गाय रंभाती रहती थी । घर के साथ आँगन भी बुहारा जाता था । सभी वार त्योहार,शादी ब्याह तक उस अँगने में सम्पन्न हो जाते थे ।।
इंसानों के दायरे विस्तृत हुआ करते थे । कुछ घर-आँगन मिलकर मोहल्ला हो जाता था । सभी घर बच्चों के हुआ करते थे । कौन बच्चा किस घर में खा रहा है,और किस घर में सो रहा है,कोई हिसाब किताब नहीं रखा जाता था । एक घर के अचार की खुशबू कई दीवारें पार कर जाती थी ।
ज़िन्दगी घरों में नहीं,आंगनों में ही गुज़र जाती थी । गर्मी के दिनों में कौन घरों के अन्दर मच्छरदानी और आल आउट में सोता था ! माँ की लोरी और आसमान के तारे गिनते-गिनते,कब नींद लग जाती,कुछ पता ही नहीं चलता था । सुबह उठो,तो सूरज आसमान में सर पर नज़र आता था । अब किसी के घोड़े नहीं बिकते । सुबह का अलार्म,दूधवाला और अखबार वाला ,बच्चों के स्कूल की तैयारी और काम वाली बाई की दस्तक, सब नींद चुराकर ले जाते हैं ।।
अब घर बड़े हो गए,आँगन साफ़ हो गए, पड़ोस से सटी मोटी-मोटी दीवारें चार इंची हो गई, इस पार से उस पार की ताका-झाँकी, वस्तुओं का आदान-प्रदान बंद हो गया । सब घरों में सबके अपने अपने बेडरूम हो गए,अलग अलग सपने हो गए । इंसान सम्पन्न होता गया, अपने आप में सिमटता चला गया ।
आज घर की पक्की दीवारें महँगे एक्रेलिक पेंट से पुती हुई होती हैं,जिनमें एक खील भी ड्रिलिंग मशीन से ठोकी जाती है । याद आती हैं वे दीवारें,जिनमें ताक हुआ करती थी । बच्चे , पेंसिल,पेन जो हाथ लगे,से दीवारों पर चित्रकारी किया करते थे । आड़ी-तिरछी लकीरें बच्चों की मौज़ूदगी का अहसास दिलाती थी । हर भगवान के कैलेंडर के लिए एक नई खील ठोकी जाती थी । कपड़े खूँटी पर टांगे जाते थे ।
आज सहमी सी,सिमटी सी,साफ-सुथरी दीवारें बच्चों के लिए तरस जाती हैं । छोटे छोटे नाखूनों से दीवार में बड़े बड़े छेद कर दिये जाते थे, चोरी से वही मिट्टी खाई जाती थी । आज दीवारों से बात करने वाला कोई नहीं । महँगे कालीन को बच्चों से बचाया जाता है । बच्चे घर गंदा कर देते हैं । घरों को बच्चों से बचाया जाता है । घर मन मसोसकर रह जाता है ।घर की खामोश लिपी-पुती दीवारें मन ही मन सोचती हैं, अरे नादानों ! बच्चों से ही तो घर, घर होता है ।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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