श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “॥ सच का दातून ॥”।)
जी यह कोई स्लिप ऑफ टंग्यू यानी जबान फिसलने वाला मामला नहीं है, कभी कभी गलती से ब्रश करते करते, खून की जगह सच भी निकल आता है। आप कहेंगे, टूथ ब्रश का सच से क्या लेना देना, तो आप सौ प्रतिशत सही हैं।
सुबह सुबह हम ब्रश क्यों करते हैं, लो जी, ये भी कोई पूछने वाली बात हुई ! रात भर का बासी और जूठा मुंह, दांतों में अन्न के कण, सांस में बदबू, भोर होते ही, दातुन कुल्ला कर लें, तो क्या बुरा है। सांसों की बदबू और दांत दर्द के लिए हमने कभी फोरहेंस तो कभी कोलगेट, और कभी बिटको का काला दंत मंजन भी इस्तमाल किया है। आजकल दंत कांति (क्रांति) का जमाना है। ।
क्या आपको जूठा और झूठा में कुछ समानता नजर नहीं आती। झूठ क्यों बोलें, जूठे मुंह तो हम चाय भी नहीं पीते। ईश्वर झूठ ना बुलाए, अगर सवेरे गलती से किसी के घर जूठे मुंह चले जाओ, और वह चाय के साथ कुछ नमकीन, बिस्कुट ले आए, और हम ना नुकुर करें, तो वह बेचारा आग्रह करता रह जाता है, अरे साहब, मुंह तो झूठा करो, तो हम तो उसे यह भी नहीं कह सकते कि भाई साहब, वह जूठा होता है, झूठा नहीं, बस शालीनता से, सौजन्यवश, केवल चाय ग्रहण कर लेते हैं।
हम सब जानते हैं, बासी मुंह कड़वा भी होता है। जब तक कुल्ला नहीं करो, जबान में ताजगी नहीं आती। वैसे भी सच भी कड़वा ही होता है, इसीलिए, जिस प्रकार लोहा, लोहे को काटता है, उसी प्रकार नीम की कड़वी दातून न केवल दांतों और मसूड़ों की मालिश करती है, मुंह की बदबू भी गायब कर देती है और कीटाणुओं का भी नाश कर देती है। ।
कुछ लोगों की शिकायत होती है, नीम का दातून बहुत कड़वा होता है, भाई साहब सच भी तो कड़वा ही होता है। याद कीजिए, पुराने लोगों को, सुबह सुबह नीम के दातून से कुल्ला दातून करना, गला साफ करते हुए पूरे मोहल्ले को जगाना, और फिर कड़क आवाज में सबको मुर्गे की तरह बांग देकर उठने पर मजबूर कर देना।
भले ही उन लोगों की जबान कड़वी होती हो, लेकिन सच भी कहां मीठा होता है। उनकी सच्चाई, ईमानदारी, कठोर अनुशासन और समय की पाबंदी का संबंध उनके चरित्र से होता था।
आजकल ऐसे लागों को खडू़स कहा जाने लगा है। ।
कितना अच्छा हो, किसी ऐसे टूथ ब्रश और ट्रुथ पेस्ट का आविष्कार हो, जिससे जब हम सुबह सुबह ब्रश करें, तो जूठा मुंह तो साफ हो ही, हमारा मुंह इतना साफ हो, कि दिन भर वह केवल सच ही उगले। जो लोग चाशनी भरे शब्दों में हमसे कहते हैं, कुछ मीठा हो जाए, उसमें कितना सच अथवा कितना झूठ छुपा होता है, कौन जानता है।
अगर मीठे में सच छुपा होता तो वह हमें कभी नुकसान नहीं पहुंचाता। जाने अनजाने इस मीठी जुबान ने कितना झूठ उगला है, यह केवल ईश्वर ही जानता है। कितना अच्छा हो, हमारी जबान थोड़ी कड़वी हो, कम से कम इतनी कड़वी, कि सच तो कह ही पाए। ।
सच कड़वा होता है, यह जानते हुए भी हमें यही सीख दी जाती है, हमेशा सच बोलो, और मीठा बोलो ! यह कितना सच है, अब आप ही बोलो। बच्चे मीठा खाते भी हैं और मीठा बोलते भी हैं। उनके तो झूठ में भी सच छुपा होता है, और हमारे सच में, सफेद झूठ।
और शायद यही कारण है कि न तो हमें अधिक चिकनी चुपड़ी बातें हजम होती हैं और ना ही खाने में अधिक मीठा। जब मीठा खाने से स्नेह की जगह मधुमेह होने लग जाए, तो क्यों न मीठे की जगह कुछ कड़वा हो जाए। ।
नहीं साहब, चाय हो या मीठा, शुगर फ्री के साथ तो चलेगा लेकिन कड़वा नहीं चलेगा। कोलगेट की जगह दंत कांति भी चलेगा, लेकिन नीम का दातून नहीं चलेगा। कड़वा बोलने से कहां आजकल काम चलता है, झूठा ही सही, लेकिन मीठा तो बोलना ही पड़ेगा..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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