श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ये रोटीवालियाँ “।)

?अभी अभी # 162 ⇒ ये रोटीवालियाँ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

काम वाली बाइयों की कथा व्यथा और किस्से कहानियाॅं आजकल महानगरों की घर घर की कहानी हो चुकी है। कई लेखकों ने इनके दुखड़ों को बड़े संजीदा ढंग से अपनी मार्मिक कहानियों में चित्रित किया है। ऐसे में भला व्यंग्य क्यों पीछे रहे। संक्षेप में बड़ी काम वाली है यह काम वाली बाई, इसने सबका काम संभालकर पूरी दुनिया को काम पर लगा रखा है।

अब समय आ गया है, हम जरा आसपास भी नजर दौड़ाएँ ! काम वाली बाई की एक और श्रेणी होती है, जिसे बाई नहीं, सिर्फ रोटी वाली कहते हैं। इनका ओहदा और स्तर आम कामवालियों से बेहतर होता है, क्योंकि ये झाड़ू पोंछा और बर्तन नहीं मांजती, एक विशेषज्ञ की तरह, सिर्फ घर में आती है, और रोटी बनाकर चली जाती है। वैसे बनाती यह पूरा खाना ही है, लेकिन कहलाती रोटी वाली ही है। ।

एक समय था, जब घर का सारा कामकाज घर की महिलाएं ही मिल जुलकर कर लिया करती थी, झाड़ू पोंछा, बर्तन से लगाकर पूरा खाना तक उसमें शामिल था। छोटे मोटे काम तो हमें भी सीखने पड़ते थे।

माता बहनों के साथ गेहूं बीनने में हाथ बंटाना और बाद में चक्की पर आटा पिसाना और बाजार से छोटा मोटा सौदा लाने जैसा काम भी हमारे जिम्मे ही होता था।

समय बदलता चला गया।

परिवार छोटे और घर बड़े होते चले गए। नौकरी धंधों ने परिवार को तितर बितर कर दिया। पुरुष तो पुरुष, महिलाएं भी काम पर जाने लगी। चलो, इसी बहाने कामवालियों को भी काम मिलने लगा। आज हर घर में काम हो न हो, काम वाली जरूर मौजूद है। ।

दीवाना आदमी को बनाती है रोटियां। दीवाना नहीं, मजबूरी कहें ! सुबह बच्चों का स्कूल, मेम और साहब, दोनों का दफ्तर, आखिर घर का खाना कौन और कब बनाए। काम वाली के साथ रोटी वाली रखना भी आज की मजबूरी है। लेकिन रोटी वाली की बात कुछ निराली है।

उसका काम शुद्ध और साफ सफाई का है, इसलिए उसके रेट भी जरा ज्यादा हैं। वह, फुर्ती से सब्ज़ी, और दाल चावल रोटी तो बना देगी, लेकिन बर्तन मांजना उसका काम नहीं। जितने लोग, उतना पारिश्रमिक। खाना बना तो दिया जाएगा, लेकिन परोसा नहीं जाएगा। केवल एक ही घर नहीं है। और भी घरों में जाकर रोटी बनाना है। ।

कौन कितनी रोटी खाता है, उसके हिसाब से ही आटा लगाया जाता है। अगर मुफ्त की रोटियां तोड़ने मेहमान आ गए, तो आपकी बला से ! उनके पैसे अलग से देने पड़ेंगे। हम किसी को मुफ्त में रोटी बनाकर नहीं खिलाती।

कुछ लोग जरा ज्यादा ही नाक भौं सिकोड़ते हैं, उन्हें कामवाली से कोई शिकायत नहीं, लेकिन खाने में उनके बहुत नखरे होते हैं। उनके नखरे रोटी वालियाँ सहन नहीं कर सकती। बच्चे तो बच्चे, बाप रे बाप ! मजबूरी में उनके लिए अलग रोटी बनानी पड़ती है।।

जिनके लिए समय कीमती है, वे अपना कीमती वक्त इन चीजों में जाया नहीं करते। जब, वक्त पर जो मिल गया, खा लिया और काम पर चल दिए। देश जितना आज कामकाजी और परिश्रमी लोगों के बल पर चल रहा है, उतना ही इन कामवालियों और रोटी वालियों के कंधों पर भी।

वाकई भाग्यशाली हैं वे लोग, जिन्हें आज भी घर की रोटी नसीब हो रही है, फिर चाहे बनानेवाली घरवाली हो या रोटी वाली। समझदार आदमी ज्यादा मुंह नहीं खोलता, जो मिल जाए, चुपचाप खा लेता है। मजबूरी का नाम, कभी घरवाली तो कभी रोटी वाली।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments