श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पन्नालाल टैरेस“।)
अभी अभी # 177 ⇒ पन्नालाल टैरेस… श्री प्रदीप शर्मा
जिस मुंबई को आज बॉलीवुड कहा जाता है, कभी उसे माया नगरी भी कहते थे। समुद्र के रास्ते, व्यापार के बहाने कलकत्ते से प्रवेश करने वाले अंग्रेजों का प्रिय शहर था बॉम्बे, जिसे पहले बंबई और बाद में मुंबई कहा जाने लगा। गुरुदत्त ने सन् १९५६ में ही अपनी फिल्म सीआईडी के एक गीत के जरिए मुंबई की सैर करवा दी थी ;
ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां।
जरा हट के, जरा बच के,
ये है बॉम्बे मेरी जान।।
एक समय था, जब युवा पीढ़ी अपनी तकदीर आजमाने भाग भागकर मुंबई जाती थी, फिल्मों में काम ना मिले, कोई रोजगार तो मिल ही जाएगा। एक आज की पीढ़ी है, जिसे मुंबई की चकाचौंध रास नहीं आती, वह पढ़ लिखकर विदेशों में अपनी तकदीर आजमा रही है, और अपने माता पिता और देश का नाम रोशन कर रही है।।
सपना तो फिर भी सपना होता है। एक सपना था, इस मुंबई शहर को देखने का, जो सन् १९७५ में जाकर पूरा हुआ, जब एक मित्र के साथ मुंबई जाने का पहली बार मौका हाथ लगा।
मुंबई के ही एक निवासी श्री गिरीश भाई हाथी कुछ वर्ष पहले ही हमारी बैंक में स्थानांतरित होकर इंदौर आए थे। उनके साथ कुछ समय काम भी किया। अच्छे मिलनसार और खुशमिजाज इंसान थे गिरीश भाई। जब विदा हुए तो मुंबई आने का हमें औपचारिक आमंत्रण भी दिया।।
आज विश्वास नहीं होता, ७५ ₹ प्रति व्यक्ति के हिसाब से एक टैक्सी कार की सहायता से हम आनन फानन में, रात भर की यात्रा कर, सुबह मुंबई पहुंच गए और एलफिंस्टन रोड स्थित, एलफिंस्टन होटल में मात्र ₹३५ प्रति व्यक्ति के किराए की दर से दो कमरों में जम गए।
मेरे मित्र का मुंबई आने का एक मकसद था, जब कि मुझे तो सिर्फ मुंबई में ही रुचि थी।
सबसे पहला काम मैने अपने मुंबई के मित्र गिरीश हाथी को फोन लगाया। गिरीश भाई ने तत्काल फोन उठा लिया। जब हमने उन्हें हमारे मुंबई आगमन की सूचना दी तो उनका पहला प्रश्न था, कब आए, अभी कहां से बोल रहे हो। जब होटल का जिक्र किया, तो बरस पड़े।
यहां क्यों नहीं आए, हमें फोन क्यों नहीं किया और गुस्से में फोन रख दिया।।
हम समझे, बात आई गई हो गई, लेकिन केवल पंद्रह मिनिट में ही हाथी दंपत्ति हमारे सामने होटल में खड़े थे। वे टैक्सी लेकर हमें लेने आए थे। वे अभी भी नाराज ही थे। हमारे रहते आप होटल में रुको, यह हमारे लिए शर्म की बात है। मेरा मित्र किसी व्यक्तिगत कारण से होटल में रुका था, लेकिन मेरे पास कोई बहाना नहीं था। और मुझे गिरीश भाई आग्रहपूर्वक अपने साथ ग्रांट रोड स्थित उनके निवास पन्नालाल टैरेस ले ही आए। दोस्त को होटल में अकेले छोड़ने से अधिक दुख तो मुझे इस बात का था, कि केवल कुछ समय ही होटल में रुकने के मुझे पैंतीस रुपए व्यर्थ में खर्च करने पड़े।
पन्नालाल टैरेस बॉम्बे सेंट्रल में एक आवासीय परिसर है, जहां मुंबई के कई मध्यमवर्गीय परिवार वर्षों से रहते आए हैं। आज हम भले ही संपन्न हों, लेकिन उस जमाने में मुंबई में रहने का ठिकाना मिलना इतना आसान भी नहीं था। मुम्बई की जीवन शैली पर कई फिल्में बनी हैं, के. ए. अब्बास की बंबई रात की बांहों में, बहुत कुछ कह जाती है, मेरे लिए तो मुंबई तब एक जगमगाता शहर था जिसे मेरे मित्र गिरीश भाई के आतिथ्य ने और भी खूबसूरत बना दिया था।।
सबसे पहला काम गिरीश भाई ने बैंक से छुट्टी लेने का किया। पन्नालाल टैरेस के दो छोटे छोटे कमरों में उनका स्वर्ग बसा था। पति पत्नी और एक प्यारा सा पांच साल का बच्चा। जैसे हम बच्चों को बाजार ले जाते हैं, हाथी परिवार मुझे मुंबई घुमा रहा था। जब कोई अपना साथ होता है तो अनजान शहर भी अपना लगने लगता है।
ग्रांट रोड एक व्यावसायिक इलाका है, जहां से चर्च गेट और विक्टोरिया टर्मिनस दोनों पास हैं। चौपाटी और नरीमन पॉइंट एरिया भी ज्यादा दूर नहीं। पन्नालाल टैरेस से लगा हुआ ही ग्रांट रोड रेलवे स्टेशन है। यानी सब कुछ, केवल कुछ ही कदमों की दूरी पर। सुबह की सैर मेरी कमजोरी रही है। जब तक पन्नालाल टैरेस में रहा, गिरीश भाई सुबह सोते रहते, मैं चुपचाप रात भर जागने वाले मुंबई की सुबह की हवा का आनंद लेता।।
अच्छे पल बहुत जल्द बीत जाते हैं। मैं भी मुंबई के साथ साथ गिरीश भाई और मुद्रिका भाभी की यादों को समेटे वापस अपने शहर आ गया। कुछ समय तक हाथी परिवार से संपर्क रहा, लेकिन बाद में वह भी छूट गया। आज मुंबई वह नहीं, लोग वह नहीं जमाना वह नहीं।
तब की तस्वीरें तो मैं कैद नहीं कर पाया, जब एक बार गिरीश भाई और पन्नालाल टैरेस की बहुत याद आई, तो गूगल पर तस्वीर भी नजर आई। किसी ने सही कहा है, यादों का सहारा ना होता, हम छोड़ के दुनिया चल देते ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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