श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लेटलतीफ़ आफ़ताब”।)
हमारी पाँचवीं क्लास के सहपाठी का आफ़ताब नाम उसके माता-पिता ने यही सोचकर रखा होगा, कि बड़ा होकर वह उनका नाम रोशन करेगा ! कड़कती ठंड में स्कूल जाना, किसी दंड से कम नहीं ! वह समय , समय की पाबंदी और अनुशासन का था।।आफ़ताब कक्षा में सबसे आख़िर में आने वाला छात्र था।
भरी क्लास के बीच दरवाज़े पर आहट होती थी ! मास्टरजी बिना देखे ही कह उठते थे, लो आफ़ताब आ गया। आफ़ताब सिर्फ बिस्तर से उठकर आता था, जागकर नहीं आता था। मास्टरजी की छड़ी बचपन में ही उसकी हथेलियां गर्म करती थी और फिर आफ़ताब मुर्गा बना दिया जाता था। बीच बीच में मास्टरजी पढ़ाते-पढ़ाते बेंत से मुर्गे की ऊँचाई नाप लिया करते थे। जब वह पूरी तरह जाग जाता, उसे फिर इंसान बनाकर क्लास में बैठने दिया जाता।।
तब तक हमारे लिए आफ़ताब भी केवल एक नाम ही था। भला हो फ़िल्म चौदहवीं के चाँद का, जिसके एक गाने में चौदहवीं के चाँद के साथ आफ़ताब का भी ज़िक्र हुआ है। हम भी जान गए, हमारा आफ़ताब ठंड में देरी से स्कूल क्यूँ आता था।
जो सूरज गर्मी में ज़ल्दी उगता है, देर शाम तक आसमान में बना रहता है, और जहाँ भरी दोपहर में लोग सर पर छांव तलाश करते नज़र आते हैं, वही सूरज ठंड में ठिठुरता हुआ उदय होता है। बादलों की रजाई से अलसाया सा मुँह निकालता है। बच्चे ललचाई आँखों से उनींदे सूरज को देखते हुए बस में चढ़ जाते हैं। हर मज़दूर, किसान, पशु-पक्षी की निगाह धूप पर रहती है। सुबह की धूप का स्नान किसी कुंभ-स्नान से कम पुण्य देने वाला नहीं होता।।
किसी स्कूल मास्टर की हिम्मत नहीं, कड़कती ठंड में लेट लतीफ आसमान के आफ़ताब को मुर्गा बनाए। आस्तिक हो या नास्तिक, सुबह सूरज की ओर मुंह कर ही लेता है। किसी के अहसान का शुक्रिया अदा करना, किसी इबादत से कम नहीं। सुबह की धूप और प्याले की चाय की गर्मी क्या किसी जन्नत के मज़े से कम है।
शाम होते होते सूरज अपने दफ़्तर को समेट लेता है। गर्मी में शाम के सात बजे तक ड्यूटी बजाने वाले मिस्टर दिवाकर, पाँच बजे ही घड़ी दिखाकर लाइट्स ऑफ करने लग जाते हैं। लोग भी मज़बूरी में गर्म कपड़ों में खुद को समेटकर आदित्य को गुड नाईट कह देते हैं।।
जितनी ठंड बढ़ती जाएगी, सूर्य देवता के भाव बढ़ते जाएँगे ! उगते सूरज को ठंड में सलाम और गर्मी में सूर्य-नमस्कार किया जाता है। अमीर-गरीब, जानवर-इंसान को आसमान की छत के नीचे, कड़कती ठंड में, अगर कोई एक साथ लाता है, वह यही आफ़ताब है। इसकी कुनकुनी धूप में धरती माता की गोद कितनी प्यारी लगती है। इसे आप इंसानियत का धूप-स्नान भी कह सकते हैं।
ठंड की यह धूप ही वास्तविक कुंभ-स्नान है, जहाँ सुबह चौराहों पर स्कूल के बच्चे, चौकीदारों के द्वारा जलाए गए अलावों में हाथ तापते, अपनी स्कूल-बसों का इंतज़ार करते हैं। कोई कुत्ता भी वहाँ आकर धूप सेंकने के लिए सट जाता है। यह इंसानियत की आँच किसी अनजान राहगीर को अपने से अलग नहीं करती। सड़क पर किसी अनजान व्यक्ति के साथ धूप सेंकना हमारे अहंकार और अस्मिता को गला देता है। धूप स्नान ही कुम्भ का स्नान है। एक जलता अलाव किसी मज़हब को, किसी चुनावी नारे को नहीं पहचानता।।
केवल जिस्मों तक ही नहीं, रूह तक पहुँच है आफ़ताब की उस किरन की
ये सुबह, ये ठंडी हवाएँ
आओ अलाव जलाकर,
सुबह के नाश्ते में धूप खाकर
हम आज ठंड मिटाएँ।।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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