श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आड़े तिरछे लोग…“।)
अभी अभी # 236 ⇒ मुझको मेरे बाद ज़माना ढूँढेगा… श्री प्रदीप शर्मा
ज़माने ने मारे जवां कैसे कैसे, जमीं खा गई आसमां कैसे कैसे। जहां पल दो पल का साथ हो, वहां कौन किसको याद करता है, किसी की याद में दो आंसू बहाता है। देखी जमाने की यारी, बिछड़े, सभी बारी बारी।
हम एक साधारण व्यक्ति को आम कहते हैं, और असाधारण को खास। एक साधारण व्यक्ति में हमें कुछ भी असाधारण नजर नहीं आता, जिसके बारे में कबीर कह भी गए हैं ;
पानी केरा बुदबुदा
अस मानस की जात।
देखत ही छुप जाएगा
ज्यों तारा परभात।।
लेकिन होते हैं कुछ लोग असाधारण, जिनमें लोग साधारण ढूंढा करते हैं। कितना बड़ा आदमी, लेकिन इत्ता भी घमंड नहीं। एक साधारण इंसान की अच्छाई किसी को नजर नहीं आती, पहले असाधारण बनिए, उसके बाद ही आपके गुण दोष नजर आएंगे। लेकिन कोई व्यक्ति महान यूं ही नहीं बन जाता।।
कुछ देश के लिए, कुछ समाज के लिए, कुछ इंसानियत के लिए, और कला, संगीत और साहित्य के अलावा भी जब कुछ असाधारण किया जाता है, तब ही दुनिया आपको याद करती है, सलाम करती है, और आपका नाम इतिहास में दर्ज हो जाता है।
महानता अथवा प्रसिद्धि काजल की कोठरी भी है। यहां कालिख का दाग बहुत जल्द लगता है। यहां अगर चंद रायचंद हैं तो कुछ जयचंद भी! जलने वाले और टांग खींचने वाले, हर दो कदम पर मौजूद हैं यहां। गला काट स्पर्धा में, आगे बढ़कर नाम कमाना, और अपनी नेकी और काबिलियत से इल्म और शोहरत की दुनिया में नाम कमाना इतना आसान भी नहीं।।
कौन था मोहम्मद रफी! एक पेशेवर फिल्मी गायक ही तो था। खूब पैसा और शोहरत कमाई बाकी फिल्मी हस्तियों की तरह।
बड़ा आदमी इंसान यूं ही नहीं बन जाता। कुछ ऐब, कुछ ठाठ-बाट और कुछ विचित्र आदतें, उसे और खास बना देती है।
वह एक कलाकार है, कोई संत महात्मा नहीं। वैसे असली ठाठ-बाट तो आजकल राजनेता, अभिनेता, क्रिकेट खिलाड़ी और संत महात्माओं के ही हैं।
ऐसे असाधारण और महान व्यक्तियों की भीड़ में अगर कोई एक अदना सा गायक यह कह जाए, कि मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेगा, तो एकाएक यकीन नहीं होता। क्या ऐसा खास था, इस इंसान में जो आम से भी अलग, खासमखास था।
क्या यह नेकी और सादगी का ही नूर था उस कोहिनूर में, जो आज उसके चले जाने के ४३ बरस बाद भी हमें यह कहने को मजबूर करता है, वो जब याद आए, बहुत याद आए।।
दीवाना मुझ सा नहीं
इस अंबर के नीचे।
आगे है कातिल मेरा
और मैं पीछे पीछे।।
पाया है, दुश्मन को
जब से प्यार के काबिल।
तब से ये आलम है,
रस्ता याद ना मंजिल,
नींद में जैसे चलता है
कोई
चलना यूं ही आँखें मींचे।।
पूरी इंसानियत को अगर आज एक छत के नीचे देखना हो तो बस रफी को सुन लो, गुनगुना लो। छल, स्वार्थ, राजनीति और नफरत से परे एक दुनिया है मोहब्बत की, जिसका नाम मोहम्मद रफी है।
मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे। लेकिन, है अगर दुश्मन दुश्मन जमाना, गम नहीं। कोई आए, कोई जाए, हम किसी से कम नहीं।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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