श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समाधि”।)
संत कबीर तो कह गए हैं, साधो, सहज समाधि भली !
काहे का ताना, काहे का बाना। और महर्षि पतंजलि तो पूरा अष्टांग योग ही ले आए, के.जी. वन से कॉलेज की डिग्री तक। यम नियम, फिर आसन प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में जाकर समाधि। और इधर हमारे आज सबकी नाक पकड़कर प्राणायाम कराते हुए आयुर्वेदिक काढ़े पर काढ़े पिलाए जा रहे हैं। देशवासियों, सहज स्वदेशी बनो। स्वदेशी उत्पाद अपनाओ, स्वदेशी हो जाओ। समाधि से उपाधि भली।
कलयुग के एक विचारक ओशो के समाधि के बारे में इतने क्रांतिकारी विचार थे कि एक समय पूरा बॉलीवुड उनके चरणों में गिर चुका था। विनोद खन्ना, गोल्डी आनंद, सुनील दत्त, नर्गिस, और परवीन बॉबी से लेकर खुशवंत सिंह तक समाधिस्थ होते होते बचे। ।
समाधि कोई हज अथवा तीर्थ तो है नहीं कि चारों धाम रिटर्न इंसान को फट से समाधि लग जाए। बहुत पापड़ बेलते थे कभी हमारे योगी सन्यासी, गुरुकुल से हिमालय तक का सफर तय करना पड़ता था समाधि लगाने के लिए लेकिन आज के अधिकांश संत महात्मा, योगी ब्रह्मचारी, महा मंडलेश्वर और शंकराचार्य कर्मयोगी बनना पसंद करते हैं। परम सत्ता का सुख ही समाधि है ईश्वर की इस सत्ता को नमन है।
एक भक्त और उसके आराध्य के बीच में जब भावनात्मक संबंध हो जाता है तो फिर उसे किसी कमीशन एजेंट की आवश्यकता नहीं होती। वह भक्ति भाव में ऐसा डूब जाता है कि उसकी सहज समाधि लग जाती है। ।
आखिर यह सहज समाधि है क्या ! जिसे पाना है उसकी याद में खोना ही भाव समाधि है। हमारे पास इतना समय नहीं कि हम जप, तप, पूजा अर्चना, हवन यज्ञ अनुष्ठान और स्वाध्याय ईश्वर प्राणिधान का मार्ग अपनाकर बाबा बन जाएं। केवल एकमात्र भाव की गंगा ही ऐसी है जिसमें आप कभी भी, कहीं भी डुबकी लगाकर भाव समाधि में आकंठ समा सकते हो।
संगीत एक ऐसी विधा है जो आपके मन को तरंगित करती है। भले ही आप एक बाथरूम सिंगर हो, जब आप अकेले में कुछ गाते, गनगुनाते हो, तो कुछ समय के लिए कहीं खो जाते हो। बस यही खोना ही भाव समाधि है। उपलब्धि में अहंकार होता है। कई असुरों ने वर्षों तप कर अपने इष्ट से ऐसे ऐसे वर मांग लिए जिससे यह दुनिया ही संकट में पड़ गई। समाधि में कुछ मांगा नहीं जाता। भाव समाधि में तो आप कुछ मांगने लायक स्थिति में रहते ही नहीं हो। ।
जो अज्ञात है, सर्वव्यापी है, अविनाशी ओंकार है, वह ज़र्रे ज़र्रे में समाया हुआ है। एक पक्षी, एक पेड़, बहती नदी, झरना और पहाड़, कोयल की कूक, मीरा के भजन, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर हों, ता पंडित भीमसेन जोशी, पंडित जसराज और कुमार गंधर्व के निर्गुण के भजन, जो आपको उस भाव अवस्था में पहुंचा दे, बस वही भाव समाधि। तीन मिनिट की इस भाव समाधि में न तो आपमें कर्ता पन का अहंकार शामिल है और न ही कोई सकाम चेष्टा। कोई मांग नहीं, मन्नत नहीं, कोई चढ़ावा नहीं, कोई मंदिर नहीं, कोई पुजारी नहीं। ऐकटा जीव, सदाशिव।
अपने आपको पाने का सबसे सरल रास्ता है, अपने आपमें खो जाना। जितनी भी ललित कलाएं हैं, वे हमें बाहर से अंदर को ओर ले जाती है। सुख, आनंद, समाधि कुछ भी नाम दें, अंतर्मुख होते ही घूंघट के पट खुल जाते हैं। ज़रा मन की किवड़िया खोल, सैंया तेरे द्वारे खड़े। ।
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© श्री प्रदीप शर्मा
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