श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एकांगी रिश्ते…“।)
अभी अभी # 257 ⇒ एकांगी रिश्ते… श्री प्रदीप शर्मा
रास्ता एकांगी होता है, रिश्ता नहीं। रास्ता आवागमन के लिए बना होता है और रास्तों पर लगातार चलते चलते रिश्ते भी बन ही जाते हैं। पहले मेरे शहर का कोई रास्ता एकांगी नहीं था, आप एक ही रास्ते से आसानी से आ जा सकते थे। अचानक मुख्य मार्ग बहुत व्यस्त होता चला गया, वाहनों की संख्या भी बढ़ने लगी और राहगीरों की भी। इसका असर यह हुआ कि सबसे पहले शहर के महात्मा गांधी मार्ग को एकांगी किया गया। हमने एकांकी नाटक देखे और पढ़े जरूर थे, लेकिन एकांगी शब्द हमारे लिए नया था। वन वे से हमें एकांगी का मतलब समझ में आया। कुछ लोग तो आज भी हिंदी में उसे एकांकी ही कहते हैं।
रास्ता बना ही चलने के लिए होता है, बांए दायें भी केवल वाहनों के लिए ही होता है, कोई किसी पैदल यात्री को वन वे का ज्ञान नहीं बांट सकता। परेशानी तब खड़ी हुई, जब वन वे में चालान कटने शुरू हो गए।
एकांगी मार्ग में हाथी महावत के साथ निकल रहा है, उसका चालान नहीं, लेकिन एक सायकल सवार पर कानून का डंडा।।
रास्तों की तरह शनै: शनै: रिश्तों के एकांगी होने के लिए हम प्रशासन को तो दोष नहीं दे सकते। ताली दो हाथ से बजती है। लेकिन तब सभी रिश्ते करीबी लगते थे। शहर था ही कितना छोटा। छावनी, मिल एरिया, मल्हारगंज और बड़ा गणपति, हो गई चारों दिशाएं। किसी की याद आई, उठाई साइकल और पहुंच गए दस पंद्रह मिनिट में।
तब कहां किसी के घर में फोन था। मिलना जुलना ही तो रिश्ता कहलाता था।
अगर वार त्योहार में भी आपस में नहीं मिले, तो कैसा रिश्ता। तब कहां कोई आज की तरह बड़े शहरों में नौकरी धंधा करने जाता था। परिवार के तकरीबन सभी सदस्य एक ही छत के नीचे रहते थे।
ना रिश्तों की कमी, ना रिश्तेदारों की।।
रिश्तों से अधिक शिक्षा और रोजगार को प्राथमिकता दी जाने लगे। बच्चे पहले पढ़ने और बाद में नौकरी धंधे के लिए बड़े शहरों में जाने लगे। आवागमन के साधन, सुलभ होते चले गए, फोन, टीवी, कंप्यूटर और स्मार्ट फोन ने शहर को बड़ा और दुनिया को छोटा कर दिया।
आना जाना तो छोड़िए, चिट्ठी पत्री भी गायब होती चली गई। पहले लैंडलाइन और बाद में मोबाइल ने सभी मिलने जुलने वाले रास्तों को एकांगी बना दिया। अब कोई यार दोस्त अथवा रिश्तेदार, पहले की तरह चाहे जब मुंह उठाए, घर नहीं आ सकता। वह पहले फोन करेगा, अन्यथा उसे ताला भी मिल सकता है। आप भी किसी से मिलने जाएं, तो सुविधा के लिए पहले सूचित अवश्य करें।।
आज भी मेरे घर के चार पांच किलोमीटर के दायरे में कई मित्र, परिचित और रिश्तेदार हैं लेकिन हमारे बीच इस स्मार्ट सिटी बनने जा रहे महानगर में इतने एकांगी मार्ग, डिवाइडर और मार्ग अवरोधक हैं कि, वाकई लगने लगा है, बहुत कठिन है डगर पनघट की। अब रिश्तों की प्यास बस कभी कभी मोबाइल पर ही पूरी हो जाती है। फिल्म सरगम (१९७९) में एक बड़ा भावुक गीत था, हम तो चले परदेस, परदेसी हो गए। आज तो जिसे देखो, वह प्रवासी होता जा रहा है।
रिश्ते और रास्ते भले ही एकांगी हुए हों, देश आज उन्नति की राह पर है। कहीं कहीं रिश्तों में दरार आई है तो कहीं रास्तों में भी। रास्ते तो सुधर जाएंगे, और चौड़े हो जाएंगे, बस हमारे रिश्तों का दायरा ना सिमटे। एकांगी रिश्तों की दास्तान जगजीत सिंह ने कुछ इस तरह बयां की है ;
कौन आएगा यहां
कोई ना आया होगा।
मेरा दरवाजा,
हवाओं ने हिलाया होगा।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈