श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मान न मान…“।)
अभी अभी # 262 ⇒ मान न मान… श्री प्रदीप शर्मा
अतिथि को हम मेहमान भी कहते हैं। जो बिना किसी तिथि के अनायास आ धमके, तो प्रकट रूप से भले भी वह आपके लिए देवता हो, लेकिन क्या वह, मान न मान, मैं तेरा मेहमान नहीं हुआ। मजबूरी में ही सही, अगर आपने उसे अपना मेहमान मान लिया, तो क्या आप उसके मेजबान यानी होस्ट (host) नहीं हुए। मैं तेरा होस्ट, तू मेरा गेस्ट।
यही होस्ट कभी कभी होस्टाइल हो उठता है, जब मेहमान guest नहीं ghost निकल जाता है। अतिथि वह भला, जिसके जाने की तिथि पहले से ही मुकर्रर हो। इस स्थिति में अतिथि तुम कब जाओगे, जैसी परिस्थिति कभी निर्मित ही नहीं होती। जो आप पर इतना मेहरबान हो कि अपने आने की, कहां ठहरने की, और वापसी की भी पुख्ता, समय और तारीख से आपको अवगत कराए, वह इस कलयुग में किसी भगवान से कम नहीं।।
लेकिन आतिथ्य कला में आजकल मनुष्य बहुत एडवांस हो चला है। यह कुछ हमारे सनातन धर्म का प्रभाव भी है और कुछ संचित पुण्य के संस्कार भी कि वह खुशी खुशी किसी भी संत, महात्मा, अथवा कथा, कीर्तन, सत्संग और पाठ का यजमान बनने में अपने आपको धन्य मानता है।
आप अपने घर में जब भी कथा, कीर्तन, जगराता अथवा भजन संध्या का आयोजन करते हैं, तो आप स्वाभाविक रूप से ही उस पुनीत कार्य के यजमान बन जाते हैं। घरों में जब भी किसी मंगल कार्य हेतु यज्ञ अथवा हवन होता है, तो घर का प्रमुख सदस्य ही तो जोड़े सहित यजमान का आसन ग्रहण करता है। एक यजमान कितने क्विंटल पुण्य अर्जित करता है, यह उसके द्वारा तन, मन और धन से संपन्न हुए कार्य पर निर्भर करता है। किसी व्रत का उद्यापन भी इसी श्रेणी में शामिल होता है। सुहागन जोड़े को आदर सत्कारपूर्वक भोजन करवाना भी यजमान के संचित पुण्य में अतिशय वृद्धि करता है।।
कलयुग नाम अधारा! नारद भक्ति सूत्र के अनुसार भी श्रवण, कीर्तन और नाम स्मरण ही आज के युग में मुक्ति के साधन हैं। राम नाम की लूट का तो हम हाल ही में प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हैं। लेकिन किसी पहुंचे हुए संत द्वारा राम कथा अथवा भागवत कथा का आयोजन इतना आसान भी नहीं। मेहनत पसीने से अर्जित धन और संचित पुण्य ही किसी विरले, अति भाग्यशाली व्यक्ति को यह स्वर्णिम अवसर प्राप्त होता है, जब वह इस आयोजन का साक्षी भाव से यजमानत्व का भार ग्रहण करे। जन्मों जन्मों के संचित संस्कारों के पुण्य फल के पश्चात् ही किसी यजमान के जीवन में यह घटना घटित होती है।
आपने कभी सुना है, मान न मान मैं तेरा यजमान। जी हां, जिनका राजयोग प्रबल होता है, वे तो केवल अपने पुरुषार्थ एवं जन जन के आग्रह और अनुनय के फलस्वरूप ही यह दुर्लभ दायित्व हंसते हंसते स्वीकार कर लेते हैं लेकिन शेष सात्विक, संस्कारी धनाढ्य धर्मावलंबियों को ऐसे भव्य और दिव्य आयोजनों में यजमान बनने हेतु जमीन आसमान एक करना पड़ता है, बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं।।
लेकिन ईश कृपा और संचित धन के अलावा संचित पुण्य के आधार पर ही बिल्ली के भाग से छींका टूटता है और धर्म के ऐसे कल्याणकारी आयोजन में कोई विरला ही यजमान के इस दायित्व को ग्रहण कर पाता है।
बिना मेहमान के एक बार आपका जीवन सुखी हो सकता है, लेकिन बिना यजमान के कोई यज्ञ नहीं हो सकता, कोई कथा भागवत, कीर्तन सत्संग नहीं हो सकता। मनुष्य के जीवन की सुख शांति का आधार ही धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान है। सभी सिद्ध पुरुष, प्रकांड कर्मकांडी पंडित और रामकथा और भावगत कथा के आचार्य सुन लें,
मान न मान, मैं तेरा यजमान। आशीर्वाद तो बनता है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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