श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश।)

?अभी अभी # 264 ⇒ गुमशुदा की तलाश… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक समय था, जब समाचार पत्रों में यदा कदा ऐसी तस्वीरें छपा करती थीं, जिनके साथ यह संदेश होता था, प्रिय विनोद, तुम जहां भी हो, घर चले आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की ज़रूरत हो बता देना।

लाने वाले को आने जाने के किराए के अलावा उचित इनाम दिया जाएगा। इनमें कुछ ऐसे वयस्क महिला पुरुष भी होते थे जो मानसिक रूप से विक्षिप्त होते थे, और घर छोड़कर चले जाते थे।

तब किसी का अपहरण अथवा किडनैपिंग सिर्फ फिल्मों में ही होता था। मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चे या तो मेलों में गुम होते थे, अथवा उन्हें डाकू या गुंडे उठाकर ले जाते थे, और वे बड़े होकर डॉन या फिर डाकू बन जाते थे।।

तब ना घर में फोन अथवा मोबाइल होता था और ना ही कोई संपर्क सूत्र। घर भी भाई बहनों और रिश्तेदारों से भरे भरे रहते थे। खेलने कूदने की आउटडोर गतिविधि अधिक होती थी। स्कूल के दोस्तों के साथ साइकलों पर पाताल पानी और टिंछा फॉल जैसी प्राकृतिक जगह निकल जाते थे। सर्दी, गर्मी, बारिश, कभी साइकिल पंक्चर, देर सबेर हो ही जाती थी। परिवार जनों की चिंता स्वाभाविक थी। लेकिन वह उम्र ही बेफिक्री और रोमांच की थी।

गुमने और खोने में फर्क होता है। जो गुमा है उसके वापस आने की संभावना बनी रहती है। गुमना एक तरह से गायब होना है, कुछ समय के लिए बिछड़ना है। कई बार ऐसा होता है, हम खोए खोए से, गुमसुम बैठे रहते हैं। हमें ही नहीं पता, हम कहां गायब रहते हैं, अचानक कोई हमें सचेत करता है, और हम अपने आप में वापस आ जाते हैं।।

हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है, जो हमसे जुड़ा हुआ है, चल – अचल, जड़ – चेतन। रिश्ते बनते हैं, बिगड़ते हैं, कभी कोई काम बनता है, तो कभी कोई काम बिगड़ता भी है। खोने पाने के बीच जीवन निरंतर चलता रहता है। किसी चीज की प्राप्ति अगर उपलब्धि होती है तो किसी का खोना एक अपूरणीय क्षति। जेब से पर्स का गिरना, चोरी होना या खोना तक हमें कुछ समय के लिए विचलित कर सकता है।

कभी कभी तो जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब किसी के अचानक चले जाने से समय रुक जाता है, ज़िन्दगी ठहर जाती है, एक तरह से दुनिया ही लुट जाती है।

होते हैं कुछ ऐसे इंसान भी, जो खोने पाने के बीच, मन को एक ऐसी स्थिति में ले आते हैं, जहां जो खो गया, वह आसानी से भुला दिया जाता है, और जो मिल गया, उसे ही मुकद्दर समझ लिया जाता है। मिलने की खुशी ना खोने का ग़म, क्या एक ऐसा भी कोई मुकाम होता है।।

सदियों से इंसान की एक ही तलाश है। वह सब कुछ पाना तो चाहता है, लेकिन कुछ भी खोना नहीं चाहता। उस लगता है, पाने में खुशी है, और गंवाने में गम। उसकी चाह, चाहत बन जाती है, जब कि हकीकत में हर चाह का पूरा होना मुमकिन नहीं। चाह में चिंता है, बैचेनी है, दिन रात का परिश्रम है, आंखों में नींद नहीं सिर्फ सपने हैं।

और पाने के बाद उसके खोने और गुम हो जाने का भय। ताले चाबी, लॉकर, सुरक्षा, key word, पासवर्ड, OTP, सेफ्टी अलार्म, सीसीटीवी, और सिक्योरिटी गार्ड। लेकिन जो आपसे ज़िन्दगी तक छीन सकता है, उससे आप क्या क्या बचाओगे। साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय तो आज की तारीख में अतिशयोक्ति होगी लेकिन जो है वह पर्याप्त है का भाव ज़रूरी है। बस सुख चैन कोई ना छीने, हमारी स्वाभाविक खुशियां कहीं गुम ना हो जाए। दुनिया में आज भी नेकी कायम है। अमन चैन भी, थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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