श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| सेवक ||“।)
अभी अभी # 268 ⇒ || सेवक || श्री प्रदीप शर्मा
बिना सेवा और समर्पण के कोई सेवक नहीं बन सकता। जिसमें दास का भाव होता है, वह भी सेवक ही कहलाता है। अंग्रेजी में serve क्रिया से ही सर्वेंट बना है। उनका सर्वेंट ही हमारा हिन्दी का नौकर बन गया और सर्विस, नौकरी हो गई। कुछ शासकीय सेवक बन गए, और कुछ सिविल सर्वेंट। इसी तरह नौकरशाही का जन्म हुआ, जिसमें बाबू, साहब, क्लर्क और चपरासी जैसे ओहदे अस्तित्व में आए।
सेवा का विस्तार होता चला गया, शासन, प्रशासन और शासक प्रशासक बन बैठा।
जो कभी ईश्वरदास और भगवानदास था, समय ने उसे परिस्थिति का दास बना दिया। नौकरशाही की तरह ही शायद कभी दास प्रथा का भी जन्म हुआ हो। ताश के पत्तों के साहब, बीवी और गुलाम तो प्रतीक मात्र हैं। मालिक, हम तो हैं आपके गुलाम।।
जो कर्म को सेवा समझते हैं, वे भी सेवक ही कहलाते हैं। जो देश की सेवा करता है, वह देशसेवक कहलाता है और जो समाज की सेवा करता है, वह समाज सेवक। कहीं सेवक को परिश्रमिक मिलता है, तो वह कहीं का कर्मचारी कहलाने लगता है। दूध, अखबार, किराना, बिजली, पानी, तो छोड़िए, हमारे सर की छत भी किसी की सेवा का ही नतीजा है।
ईश्वर की कृपा और मनुष्य मात्र के आपसी सहयोग से ही यह संसार चल रहा है।
कहीं किसी नौकर को साहब की नौकरी के साथ उनकी चाकरी भी करनी पड़ रही है तो कुछ ऐसे भी सेवक हैं जो केवल प्रभु की चाकरी करते हैं, और अपनी सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों को कुशलतापूर्वक निभाते हुए भी अपनी स्वेच्छा से समाज की सेवा करते हैं, ऐसे लोग स्वयंसेवक कहलाते हैं, क्योंकि ये अपनी सेवाओं के बदले में कोई मूल्य नहीं लेते। उन्हें सेवा के बदले में मेवे की इच्छा भी नहीं रहती। वे ही देश, समाज और प्रभु के असली सेवक होते हैं।।
गुरुद्वारे में ग्रंथी भी होते हैं और सेवक भी। निष्काम सेवक के लिए कोई काम बड़ा छोटा नहीं होता। अपने जूतों के साथ वे अपना अहंकार और अस्मिता भी बाहर छोड़कर आते हैं, और जो सेवा उन्हें सौंपी जाती है, उसका निष्ठा से निष्पादन करते हैं, ऐसी सेवा कार सेवा कहलाती है।
हाल ही में २२ जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर में संपन्न प्राण प्रतिष्ठा भी किसी कारसेवा का ही परिणाम है। ६ दिसंबर १९९२ वही ऐतिहासिक दिन था, जब कारसेवकों के बलिदान ने कार सेवा को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था। सब कुछ ईश्वर की प्रेरणा से ही होता है।
अगर हमारे मन माफिक होता है, तो हम खुश होते हैं, और जब हमारी मर्जी के अनुसार उसका परिणाम नहीं निकलता तो हम दुखी होते हैं।।
एक सच्चा सेवक कभी अपना धैर्य नहीं खोता। उसका कार्य कभी खत्म ही नहीं होता। गीता के अनुसार फल की चिंता न पालते हुए निष्काम कर्म ही उसकी नियति है।
सेवक वही जो कभी भ्रमित ना हो। राजनीतिक स्वार्थ और महत्वाकांक्षा अच्छे अच्छे सेवकों को पथभ्रष्ट कर देती है। तब ही बाबा रामदेव जैसे योगी पूरे देश में स्वाभिमान यात्रा की अलख जगाते हैं और सत्ता पलट डालते हैं। कोई सेवक इसका श्रेय ले लेता है तो कई सेवक गुमनामी के साये में पड़े रहते हैं।
लेकिन एक सच्चे सेवक के लिए यश, कीर्ति और लोकेषणा कोई मायने नहीं रखती, क्योंकि वह तो केवल ईश्वर का दास है, एक सच्चा सेवक है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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