श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सुखा कचरा/गिला कचरा…“।)
अभी अभी # 274 ⇒ सुखा कचरा/गिला कचरा… श्री प्रदीप शर्मा
बड़ा दुख होता है जब लोग हमें सूख से जिने भी देते। कम से कम सुख को इतना तो मत सुखाओ कि वह सूखकर दूख हो जाए। अगर इंसान का जीना भी जिना हो जाए तो शायद वह सूखकर ही मर जाए।
भाषा का कचरा तो खैर आम बात है। यह क्या कम है कि विभिन्न भाषाओं वाले हमारे देश में लोग सही गलत हिंदी बोल और लिख तो लेते हैं। भाषा अभिव्यक्ति का मामला है, इसमें ज्यादा मीन मेख नहीं निकालना चाहिए। हमने एक बार कोशिश की थी तो एक जानकार द्वारा हमारा यह कहकर मुंह बंद कर दिया गया कि मीन और मेष दो राशियां होती हैं, मीन मेख कुछ नहीं होता।।
इतने टुकड़ों में बंटा हुआ हूं मैं। आजादी के वक्त देश के टुकड़े हुए, बहुत हिंदू मुसलमान हुआ, वैसे ही प्रांतीय भाषाओं ने देश को बांट रखा है, ऐसे में अच्छे भले कचरे का भी बंटवारा हमें अनायास ही नेहरू गांधी की याद दिला गया।
अंग्रेजों की भी तो यही नीति थी, बांटो और राज करो। बैठे बैठे क्या करें, करते हैं कुछ काम। चलो कचरे का ही बंटवारा करते हैं। हर घर में द्वार पर जय विजय की तरह दो कचरा पेटियां विराजमान हैं, गीला कचरा और सूखा कचरा। गीले कचरे में सूखे का प्रवेश निषेध है और सूखे में गीले का।।
याद आते हैं वे दिन, जब सड़कों पर गंदगी का साम्राज्य और गीले सूखे कचरे का मिला जुला रामराज्य था। आवारा पशु और कुछ पन्नी बीनने वाली महिलाएं घूरे में से भी मानो सोना निकालकर ले जाती थी। आज सभी पशु सम्मानजनक स्थिति में पशु शालाओं में सुरक्षित हैं और स्वच्छ सड़कों पर सिर्फ श्वानों का राज है।
खैर जो हुआ, अच्छा हुआ। देश का बंटवारा हो अथवा कचरे का बंटवारा। वैसे भी पाकिस्तान भी हमारे लिए किसी कचरे से कम नहीं। क्या कांग्रेस काफी नहीं थी। कितने कचरों में बंट गया हूं मैं।।
चलिए कचरे का बंटवारा भी हमें कुबूल, लेकिन भाषा का कचरा हमें कतई बर्दाश्त नहीं। हमें सूखे कचरे से भी कोई शिकायत नहीं, बस उसे सूखा ही रहने दो, सुखा मत बनाओ।
गीले कचरे भी हमें कोई गिला नहीं, बस प्यार को प्यार की तरह, गीले को गीला ही रहने दो, और अधिक गिला मत करो।
जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं होती, वहां अक्सर मात्राओं का दोष होना स्वाभाविक है। कुछ भाषाविदों को तो दोष को दोस उच्चारित करने में कोई दोष नजर नहीं आता। कल ही श्रीमती जी का प्रदोस था।।
सुखा कचरा और गिला कचरा की भावना को भी हम उतना ही सम्मान देते हैं, जितना सूखे और गीले कचरे को देते हैं। भाषा की इस विसंगति के व्यंग्य को अभी अभी के रूप में पेश करने में मेरे परम मित्र देवेंद्र जी के कार्टून का बहुत बड़ा हाथ है। उनका मेरे लिए आग्रहपूर्वक बनाया गया यह कार्टून, वह सब कुछ कह जाता है, जो मैं इतने शब्दों में भी नहीं कह पाया। उनके इस स्नेहपूर्ण उपहार से मैं अभिभूत हूं…!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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