श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हग हग हगीज़…“।)
अभी अभी # 281 ⇒ हग हग हगीज़… श्री प्रदीप शर्मा
चौंकिए मत, यह एक विशुद्ध अंग्रेजी शीर्षक है। हम भी ऐसे ही चौंके थे, जब हमने मनोहर श्याम जोशी का हरिया हरक्युलिस की हैरानी जैसा शीर्षक वाला उपन्यास, देखा था। एक बहुत पुराना बच्चों का गीत है, गोरी जरा हंस दे तू, हंस दे तू, हंस दे जरा। और गीत के आखिर में एक बच्ची के हंसने की आवाज आती है।
कोई बच्चा हंसे, और उसे गले से लगाने की इच्छा ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। बाल लीला बड़ी मनोहर होती है। आपने सुना होगा,
“सूरदास तब विहंसि यशीदा, ले उर कंठ लगायो”।।
बच्चा तो खैर बच्चा ही होता है, और हर बच्चा सुंदर होता है। हम भी जब छोटे थे, तो आजकल की भाषा में बड़े क्यूट थे। बेचारे क्यूट बच्चे के गोरे गोरे गाल नोंचने से लोगों को क्या मिल जाता है। कभी तो उनका चेहरा और लाल हो जाता है, तो कभी कभी तो वे बेचारे दर्द के मारे रो देते हैं। हद होती है, चुम्मा चाटी की भी। बस, इसी को आजकल की भाषा में hug कहते हैं।
समझदार माताएं हमारे जमाने में छोटे बच्चों को नैपीज पहनाती थी, जिसे हम हमारी भाषा में लंगोट कहते थे। घर में इतने भाई बहन थे, कि सबको बच्चे को लंगोट पहनाना आ जाता था। बच्चा लाड़ प्यार का भूखा होता है, और हंसते बच्चे को तो कोई भी गोद में उठा लेता है। क्या भरोसा कब बच्चा गीला कर दे। गीला करते ही बच्चा थोड़ी झेंप के साथ वापस माता को सुपुर्द कर दिया जाता था, लगता है इसने गीला कर दिया है।।
वही बच्चे की लंगोट, नैप्पीज से कब डायपर हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। हमें भी आटे दाल के भाव पते चल गए, जब अपने नवासी के लिए डायपर खरीदने निकले।
उस जमाने में दस रुपए का एक था। हम ध्यान डायपर के भाव पर रहता, और बच्चा डायपर की राह देखता। शंका लघु हो अथवा दीर्घ, डायपर लगाते ही, दूर हो जाती थी।
आपको शायद विचित्र लगे, बच्चों को सू सू कराने का भी तरीका होता है। अनुभवी माताएं आज की तरह हगीज के भरोसे नहीं रहती थी। बच्चे को खड़ा करके संगीत के साथ सू सू कराती थी। जब सा सा एक संगीत प्रेमी को मुग्ध कर सकता है, तो क्या सिर्फ मुंह से निकाली गई सू सू जैसी ध्वनि बच्चे की छोटी सी समस्या का निवारण नहीं कर सकती।।
लेकिन आज के व्यस्त जीवन में परिवारों में कहां इतने फुरसती जीव। हमने बच्चे को हगीज पहना दी है, जिसको जितना hug करना है, बच्चे को, प्रेम से करें। झेंपने और शरमाने जैसी कोई स्थिति ही नहीं। बच्चा भी खुश, आप भी खुश।
Hug Hug Huggies ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈