श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अलौकिक प्रेम…“।)
अभी अभी # 282 ⇒ अलौकिक प्रेम… श्री प्रदीप शर्मा
इस लोक में रहकर किसी और लोक की बात, और वह भी वैलेंटाइन वीक और वसंत ऋतु में ! क्या इस लोक में बहार की कमी है। l आया वसंत, आया वसंत और बहारों की तो समझिए, बारात ही निकलती रहती है इस मौसम में।
क्या इसे महज अतिशयोक्ति कहें अथवा हमारी लौकिकता का दिवालियापन, कि हमें सौंदर्य और प्रेम की तुलना भी अलौकिक प्रेम और सौंदर्य से करनी पड़ रही है। ऐसे कितने अलौकिक रिटर्न प्रेमी और सौंदर्यशास्त्री हमारे बीच मौजूद हैं, जो अन्य लोकों की भी जानकारी रखते हैं। अद्भुत और अलौकिक तो आजकल हमारा, एक तरह से, तकिया कलाम हो गया है।।
सप्तर्षि, सप्त सागर और सात रंगों की तरह ही सात लोकों का भी वर्णन आता है। ॐ भु:, भुव:, स्व:, तप:, मन:, जन: और सत्यम्, लो जी, हो गए सातों लोक। और खूबी यह कि ये सभी लोक भी हमारे अंतस् में ही समाए हुए हैं। बस इनकी अनुभूति इतनी आसान नहीं। और शायद इसीलिए देव और असुर दोनों अमृतपान कर अमर हो जाना चाहते हैं। अमृतपान से स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है। सत्ता का सुख ही देवासुर संग्राम है।
क्या सत्ता का सुख, अथवा स्वर्ग का सुख प्रेम से बड़ा है। अगर वाकई ऐसा होता, तो शायद प्रेम का संदेश देने के लिए कृष्ण को मथुरा में जन्म ही नहीं लेना पड़ता। वैकुंठ का सुख छोड़ कोई क्यों ग्वाला बनकर गैया चराएगा, मटकी फोड़ेगा और माखन चोर कहलाएगा और गोपियों संग रास रचाएगा, इंद्र को पानी पिलाएगा और फिर भी चैन की बंसी बजाएगा।।
क्या यह सब अलौकिक नहीं ! इसी लोक में शबरी के जूठे बेर प्रभु श्री राम ने खाए हैं। यहीं, इसी धरती पर मीरा और सूरदास ने प्रेम और भक्ति के पद गुनगुनाए हैं। सभी कुछ तो इसी पृथ्वी लोक पर घटित होता चला आ रहा है। फिर और कौन सा प्रेम अलौकिक होता है, हमारी समझ से परे है।
प्रेम में दिव्यता होती है, भव्यता नहीं। प्रेम दर्शन की वस्तु है, प्रदर्शन की नहीं। प्रेम की बुनियाद त्याग और बलिदान पर टिकी है, जहां सब कुछ लुटाया ही जाता है। कितनी आसानी से कह जाते हैं जगजीत ;
तुम हार के दिल अपना
मेरी जीत अमर कर दो।
साधारण शब्दों में सांसारिक प्रेम लौकिक प्रेम है और ईश्वरीय प्रेम अलौकिक। जब प्रेम भक्ति का आधार बनता है तो वह निष्काम और अनासक्त हो जाता है। ईश्वर से प्रेम, अनासक्त प्रेम की पराकाष्ठा है ;
जब प्रेम ह्रदय में उमड़ पड़ा
आनंद ही है, आनंद ही है।
अब जग की चिंता कौन करे
आनंद ही है, आनंद ही है।।
जब ईश्वर की प्रतीति प्रकृति में होने लगती है, तो प्रकृति भी प्रेममय हो जाती है। जर्रे जर्रे में जब उसका एहसास होता है तो वही अलौकिक प्रेम सभी प्राणियों पर भी प्रकट होने लगता है। अपने पराए की प्रतीति नष्ट होने लगती है।
प्रेम का रंग ही कुछ ऐसा है कि यहां बारहों माह वसंत ही रहता है। लौकिक कहें, अलौकिक कहें, गुलजार तो प्यार को कोई नाम ही नहीं देना चाहते।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈