श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गीतकार इन्दीवर…“।)
अभी अभी # 296 ⇒ गीतकार इन्दीवर… श्री प्रदीप शर्मा
एक संस्कारी बहू की तरह, मैंने जीवन में कभी आम आदमी की दहलीज लांघने की कोशिश ही नहीं की। बड़ी बड़ी उपलब्धियों की जगह, छोटे छोटे सुखों को ही तरजीह दी। कुछ बनना चाहा होता, तो शायद बन भी गया होता, लेकिन बस, कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।
गीतकार इन्दीवर से भी मुंबई में अचानक ही एक सौजन्य भेंट हो गई, वह भी तब, जब उनके गीत लोगों की जुबान पर चढ़ चुके थे। मैं तब भी वही था, जो आज हूं। यानी परिचय के नाम पर आज भी, मेरे नाम के आगे, फुल स्टॉप के अलावा कुछ नहीं है। कभी कैमरे को हाथ लगाया नहीं, जिस भी आम और खास व्यक्ति से मिले, उसके कभी डायरी नोट्स बनाए नहीं। यानी जीवन में ना तो कभी झोला छाप पत्रकार ही बन पाया और न ही कोई कवि अथवा साहित्यकार।।
सन् 1975 में एक मित्र के साथ मुंबई जाने का अवसर मिला। उसकी एक परिचित बंगाली मित्र मुंबई की कुछ फिल्मी हस्तियों को जानती थी।
तब कहां सबके पास मोबाइल अथवा कैमरे होते थे। ऋषिकेश मुखर्जी से फोन पर संपर्क नहीं हो पाया, तो इन्दीवर जी से बांद्रा में संपर्क साधा गया। वे उपलब्ध थे। तुरंत टैक्सी कर बॉम्बे सेंट्रल से हम बांद्रा, उनके निवास पर पहुंच गए।
वे एक उस्ताद जी और महिला के साथ बैठे हुए थे, हमें देखते ही, उस्ताद जी और महिला उठकर अंदर चले गए। मियां की तोड़ी चल रही थी, इन्दीवर जी ने स्पष्ट किया। बड़ी आत्मीयता और सहजता से बातों का सिलसिला शुरू हुआ। कविता अथवा शायरी में शुरू से ही हमारा हाथ तंग है। उनके कुछ फिल्मी गीतों के जिक्र के बाद जब हमारी बारी आई तो हमने अंग्रेजी कविता का राग अलाप दिया। लेकिन इन्दीवर जी ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि उन्हें अंग्रेजी साहित्य का इतना इल्म नहीं है। हमने उन्हें प्रभावित करने के लिए मोहन राकेश जैसे लेखकों के नाम गिनाना शुरू कर दिए, लेकिन वहां भी हमारी दाल नहीं गली।।
थक हारकर हमने उन्हें Ben Jonson की एक चार पंक्तियों की कविता ही सुना दी। कविता कुछ ऐसी थी ;
Drink to me with thine eyes;
And I will pledge with mine.
Or leave a kiss but in the cup
And I will not look for wine…
इन्दीवर जी ने ध्यान से कविता सुनी। कविता उन्हें बहुत पसंद आई। वे बोले, एक मिनिट रुकिए। वे उठे और अपनी डायरी और पेन लेकर आए और पूरी कविता उन्होंने डायरी में उतार ली।
इतने में एक व्यक्ति ने आकर उनके कान में कुछ कहा। हम समझ गए, हमारा समय अब समाप्त होता है। चाय नाश्ते का दौर भी समाप्ति पर ही था। हमने इजाजत चाही लेकिन उन्होंने इजाजत देने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई और बड़ी गर्मजोशी से हमें विदा किया।।
इसे संयोग ही कहेंगे कि उस वक्त उनकी एक फिल्म पारस का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। मुकेश और लता के इस गीत के बोल कुछ इस प्रकार थे ;
तेरे होठों के दो फूल प्यारे प्यारे
मेरी प्यार के बहारों के नजारे
अब मुझे चमन से क्या लेना, क्या लेना।।
एक कवि हृदय ही शब्दों और भावों की सुंदरता को इस तरह प्रकट कर सकता है। ये कवि इन्दीवर ही तो थे, जिनके गीतों को जगजीत सिंह ने होठों से छुआ था, और अमर कर दिया था।
सदाबहार लोकप्रिय कवि इन्दीवर जी और जगजीत सिंह दोनों ही आज हमारे बीच नहीं हैं। हाल ही में पंकज उधास का इस तरह जाना भी मन को उदास और दुखी कर गया है ;
जाने कहां चले जाते हैं
दुनिया से जाने वाले।
कैसे ढूंढे कोई उनको
नहीं कदमों के निशां
दुनिया से जाने वाले …
© श्री प्रदीप शर्मा
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