श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचार विमर्श ।)

?अभी अभी # 301 ⇒ विचार विमर्श ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बड़ा साधारण सा असाहित्यिक और घरेलू टाइप शब्द है यह विचार विमर्श। घर गृहस्थी, बच्चों के स्कूल, घर, मकान, दुकान, नौकरी दफ्तर और बड़ी हो रही बिटिया के ब्याह की चिंता के बारे में, अक्सर परिवार के सदस्यों और परिजनों के बीच विचार विमर्श चला ही करता है।

फुरसत के क्षणों में, यार दोस्तों के बीच और कॉफी हाउस में राजनीतिक और बौद्धिक चर्चाएं होना भी आम ही है लेकिन जब यह विमर्श साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश करता है तो इसका स्वरूप कुछ निराला ही हो जाता है।।

बात निराला की वह तोड़ती पत्थर से शुरू होती है और नीर क्षीर विवेक के चिंतन से गुजरती हुई, राजेंद्र यादव के हंस में वह स्त्री विमर्श का रूप धारण कर लेती है। नारी अस्मिता और पश्चिम के विमेन्स लिब से शुरू होकर लिव इन रिलेशन पर भी वह रुकने का नाम नहीं लेती। कितनी चिंता है पुरुष को स्त्री के अधिकारों की, जिसके लिए वह स्त्री के कंधे से कंधा मिलाकर उसे एक नई पहचान दिलाना चाहता है। उसे अपने पांवों पर खड़ा होते देखना चाहता है।

विमर्श तो विमर्श है। अगर स्त्री विमर्श की चिंता पुरुष कर रहा है तो पुरुष विमर्श की चिंता कौन करे। नारी अगर कोमल है तो पुरुष कठोर। उसे मर्द कहो तो उसका सीना फूल जाता है और नामर्द कहो, तो चहरा उतर जाता है। मातृत्व अगर नारी की पहचान है तो पितृत्व पुरुष की अस्मिता। किसी भी महिला को बांझ अथवा डायन कहना उसकी अस्मिता पर चोट पहुंचाना है। इस पर कानून कितना सजग है, इस पर भी विमर्श जरूरी है।।

एक सनातन शब्द हमारे प्रयोग में अक्सर आता है जिसे पुरुषार्थ कहते हैं। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष को ही पुरुषार्थ कहा गया है। यहां पुरुषार्थ का अर्थ अथवा मतलब मानव मात्र के कर्तव्य से है। खूब लड़ी मर्दानी, जब हम कहते हैं तब भी उसकी तुलना मर्द से ही तो करते हैं। अंग्रेजी में आप चाहें तो उसे manly कह सकते हैं।

काश हम स्त्री विमर्श और पुरुष विमर्श से ऊपर उठकर सिर्फ विचार विमर्श करें। स्वस्थ संवाद हमें खेमेबाजी से बचाता है।

विचार विमर्श पत्नी बच्चों और बड़े बूढ़ों के साथ ही सार्थक होता है, जहां बदलते समय के साथ संस्कार और मान्यताओं में बदलाव भी लाया जा सकता है। गृहस्थी की गाड़ी भी दो पहियों पर ही चलती है। परिवार से ही समाज बनता है और समाज से ही देश। हमारा साहित्य आज भी समाज का ही दर्पण है इसे स्त्री और पुरुष के विमर्श से बचाकर रखें। आइए, विचार विमर्श करें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments