श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बात करने की कला…“।)
अभी अभी # 395 ⇒ बात करने की कला… श्री प्रदीप शर्मा
ज्यादा बात वे ही करते हैं, जिन्हें बेफिजूल बात करने की आदत नहीं होती। Everything is an art. हर चीज एक कला है, बोलना भी तो एक कला ही है। कहीं आवाज, तो कहीं लहज़ा और स्टाइल। बचपन में रेडियो से एक आवाज गूंजती थी, ये आकाशवाणी है, और हम समझ जाते थे, अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए।
उसके बाद सालों एक आवाज पहचान बन गई अमीन सायानी की, बहनों और भाइयों। आज बहनों और भाइयों को किसी और आवाज ने ही टेक ओवर कर लिया है। वह आवाज अब गारंटी बनकर पूरे देश में छा चुकी है।।
कुछ वक्ता अच्छे नेता होते हैं, और कुछ नेता सिर्फ अच्छे वक्ता होते हैं। राजनीति के अलावा विज्ञापन की दुनिया में भी बच्चों बड़ों को मोह लेने वाली कुछ आवाजें होती हैं। ललिता जी को कोई शायद ही कभी भूल पाए, भाई साहब, सर्फ़ की खरीददारी में ही अधिक समझदारी है।
आम जीवन में कोई स्क्रिप्ट राइटर अथवा सलीम जावेद जैसा डायलॉग राइटर नहीं होता, फिर भी हमारी घरेलू महिलाएं बातों में पुरुषों से बाजी मार ले जाती हैं। जिसके हाथ में कैंची होती है, उसकी जबान वैसे भी ज्यादा ही चलती है। कढ़ाई, सिलाई और बुनाई भी कभी बिना बातों के संभव हुई है। एक जमाना था, जब पापड़ बेलना अथवा चक्की पीसना जैसे काम महिलाएं मिल जुलकर, बातों बातों में ही निपटा देती थी।
वैसे बातों में किसी का एकाधिकार नहीं है। बात बनाने में, और बात का बतंगड़ बनाने में पुरुष भी पीछे नहीं। ऊंची ऊंची हांकने में अक्सर पुरुष ही बाजी मार ले जाता है। “हमारे जमाने में”, हर पुरुष का तकिया कलाम होता है लेकिन घर की स्त्री के आगे उसकी एक नहीं चलती। सौ सुनार की और एक लोहार की।।
जो लोग धाराप्रवाह बोलते हैं, वे अक्सर बिना सोचे समझे ही बोलते हैं, लेकिन उनकी बातों के जाल में श्रोता ऐसा उलझ जाता है कि उसकी बोलती बंद हो जाती है। आपको वे बीच में बोलने का मौका ही नहीं देते। आपका बीच में बोलना उन्हें टोका टोकी लगता है, लेकिन जब आप अपनी बात कहते हैं, तो आपको टोककर पुनः अपना राग अलापना शुरू कर देते हैं।
बातों का शब्द जाल, जिसे लच्छेदार भाषा कहते हैं, कुछ विरलों की ही जागीर होती है। सामने वाले को बातों में उलझाना सबके बस का नहीं होता। हमेशा बेचारा समय ही घुटने टेक देता है, लेकिन बातें खत्म होने का नाम नहीं लेती।।
बहनों और सहेलियों के पास कितना बातों का स्टॉक होता है और कितना उनका टॉकटाइम यह तो शायद ईश्वर भी नहीं जानता। मेरे घर में तो रॉन्ग नम्बर होने पर भी फोन एंगेज ही रहता है। रॉन्ग नंबर था, किसी अस्पताल को लगाया था, गलती से यहां लग गया। थोड़ी सुख दुख की बात कर ली, तो क्या गलत किया।
आपस में जितनी चाहें बात करें, लेकिन जब फोन अनावश्यक रूप से बातों में उलझा रहता है, तो बड़ी कोफ़्त होती है। कितने ही जरूरी कॉल्स लग नहीं पाते। कोई इमरजेंसी है, कोई घर आने की सूचना देना चाहता है, कुछ भी
अप्रत्याशित घट सकता है, बातों का क्या है, बातें तो बाद में भी हो सकती हैं।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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