श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वप्न से निवृत्ति…“।)
अभी अभी # 398 ⇒ स्वप्न से निवृत्ति… श्री प्रदीप शर्मा
हमारी प्रवृत्ति के लिए हमारी वृत्ति जिम्मेदार है। क्या वृत्ति का हमारी स्मृति से भी कुछ लेना देना है। वैसे वृत्ति का संबंध अक्सर चित्त से जोड़ा गया है। जोड़ने को ही योग भी कहते हैं। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्त वृत्ति के निरोध को ही योग कहा गया है। अगर प्रवृत्ति संग्रह है तो निवृत्ति असंग्रह। निरोध ही निवृत्ति का मार्ग है।
चेतना के चार स्तर माने गए हैं, जिन्हें हम अवस्थाएं भी कह सकते हैं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीयावस्था।
सुषुप्ति अवस्था : गहरी नींद को सुषुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु। अगर गहरी नींद ना हो, तो हमारे शरीर और मन को आराम नहीं मिल सकता।
आठ घंटे की स्वस्थ नींद में हम कितनी गहरी नींद सोते हैं, कितनी नींद कच्ची होती है, और कब स्वप्न देखते हैं इसका लेखा जोखा इतना आसान भी नहीं। लेकिन गहरी नींद एक स्वस्थ मन की निशानी है और कच्ची नींद और स्वप्न एक चंचल मन की अवस्था है। स्वप्नावस्था में अवचेतन मन नहीं सोता।
चित्त के संचित संस्कार, और स्मृति के साथ साथ हर्ष, शोक और भय के संस्कार भी स्वप्न में प्रकट होते रहते हैं।।
अच्छे स्वप्न हमें एक चलचित्र की तरह मनोरंजक लगते हैं तो बुरे सपने हमें नींद में ड्रैकुला की तरह डराने का काम करते हैं। अवचेतन का भय और दबी हुई इच्छाएं
स्वप्न के रास्ते मन में प्रवेश करती हैं। परीक्षा का भय भी कई वर्षों तक मन में बैठा रहता है और व्यक्ति स्वप्न में ही बार बार परीक्षा दिया करता है।
योग द्वारा चित्त वृत्ति का निरोध हमारे चेतन और अवचेतन दोनों पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। हमारा शरीर केवल पांच तत्वों से ही नहीं बना, इसमें सात चक्र भी है और पांच महाकोश भी।
षट्चक्र भेदन से शक्ति मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र से होती हुई सहस्रार तक पहुंच सकती है।।
अन्नं प्राणो मनो बुद्धिर्– आनन्दश्चेति पञ्च ते। कोशास्तैरावृत्तः स्वात्मा, विस्मृत्या संसृतिं व्रजेत्।
योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पांच भागों में बंटा हुआ है। इन्हें हम पंचकोश कहते हैं। इन पंचकोश में पहला अन्नमय कोश, दूसरा प्राणमय कोश, तीसरा मनोमय कोश, चौथा विज्ञानमय कोश और पांचवा व अंतिम आनंदमय कोश है।
योग केवल धारणा का विषय नहीं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का विषय भी है। इससे ना केवल स्वप्न से निवृत्ति संभव है, काम, क्रोध, लोभ, और मोह के संस्कारों पर भी अंकुश लगाया जा सकता है। जाग्रत अवस्था टोटल अवेयरनेस का नाम है जिसमें स्वप्न का कोई स्थान नहीं है।
अध्यात्म के सभी मार्गों में चित्त शुद्धि पर जोर दिया गया है। निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा। निग्रह ही निवृत्ति का मार्ग है। सपनों की खोखली दुनिया से ईश्वर के सुनहरे संसार में आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह का मार्ग त्याग अनासक्त प्रेम और अनासक्त कर्तव्य कर्म का मार्ग ही श्रेयस्कर है। महामानव तो बहुत दूर की बात है, फिलहाल तो हमें मानवता की तलाश है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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