श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे।)

?अभी अभी # 409 ⇒ नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे, आपके कदमों में ही सर झुकाएंगे। केवल अनन्य प्रेम और शरणागति भाव में ही यह संभव है। बिना लगन और समर्पण के यह संभव नहीं। बच्चे बहुत छोटे होते हैं, और उतने ही छोटे उनके हाथ। लेकिन जब आप उनसे पूछते हैं, कित्ती चॉकलेट खाओगे, तो वे अपने दोनों छोटे छोटे हाथ आसमान में

फैला देते हैं, इत्ता। यानी उनकी चाह असीम है, अनंत है। इतना और जितना को कोई कभी नाप नहीं पाया। शायद इसकी शुरुआत कुछ कुछ ऐसी होती हो ;

तू ही तू है इन आँखों में

और नहीं कोई दूजा

तुझ को चाहा तुझ को सराहा

और तुझे ही पूजा

तेरे दर को मान के मंदिर

झुकते रहे हम जितना

कौन झुकेगा इतना

कौन झुकेगा इतना

हमने तुझको प्यार किया है जितना

कौन करेगा इतना ;

जब हममें संसारी भाव होता है, तो हम किसी के आगे झुकते नहीं, हमारा मान सम्मान, अहंकार, अस्मिता और स्वाभिमान सभी ताल ठोंककर मैदान में उतर जाते हैं, सीना तना, मस्तक ऊंचा और भौंहे भी तनी हुई।।

लेकिन मंदिर में पहुंचते ही हम एकदम भक्त बन जाते हैं, आठों अंगों सहित साष्टांग दंडवत करते हैं। इतने दीन हीन हो जाते हैं, कि हमें अपने सभी विषय विकार याद आ जाते हैं,

बाहर ज्ञान बांटने वाले, वहां अपने आप को मूरख और अज्ञानी कहने लगते हैं। झुककर आचमन लेते हैं, प्रसाद माथे पर लगाकर ग्रहण करते हैं और जैसे ही बाहर जाकर जूते पहन कार में बैठते हैं, अपने पुराने रंग में आ जाते हैं।

दोहरी जिंदगी का यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। हमारा असली रूप कौन सा होता है, मंदिर के अंदर वाला, अथवा मंदिर के बाहर जगत वाला। हम तो खैर जैसे भी हैं, अपने इन दोनों रूपों से भली भांति अवगत हैं, लेकिन समस्या तब खड़ी होती है, जब किसी महात्मा की परीक्षा की घड़ी सामने होती है।।

जिस तरह एक राजनेता लाखों प्रशंसकों की भीड़ में किसी अपराध में जेल जाता है, तो उसके चेहरे पर कोई पश्चाताप का भाव नहीं होता, क्योंकि वह और उसके प्रशंसक जानते हैं, सदा सत्य की ही विजय होती है। जमानत मिलने पर भी जश्न मनाया जाता है।

संत महात्मा तो ईश्वर के अवतार होते हैं। यह कलयुग है, ईश्वर सबकी परीक्षा लेता है। सच्चा संत और महात्मा वही, जो हर परीक्षा और संकट में मुस्कुराता रहे, और अपने परमात्मा का स्मरण करता रहे। सत्यमेव जयते। धर्म की हमेशा विजय हुई है।।

आप शायद मेरी बात को गंभीरता से ना लें, लेकिन हर सुबह, मैं अपने इष्ट के आगे, यानी उसके दरबार में, नाक रगड़ता हूं और गिड़गिड़ाता हूं और उसके कदमों में झुककर, जाने अनजाने अपने किए अपराधों के लिए क्षमा मांगता हूं।

घर बाहर का अंतर मिटाना ही सच्ची ईश्वर सेवा है। हो सकता है, धीरे धीरे अंदर बाहर का अंतर भी मिट जाए। ईश्वर नहीं चाहता, आप रोज़ मंदिर आओ और उसके आगे नाक रगड़ो, जहां हो वही उसे महसूस करो। उसका मात्र स्मरण ही सत्य का मार्ग प्रशस्त करेगा। अपने अंदर उसे महसूस करना ही चित्त शुद्धि का मार्ग है।

व्यर्थ बाबाओं के यहां भीड़ बढ़ाना, अपने कल्याण के लिए उनको माया में उलझाना ही है। जब उनकी भी उलझन बढ़ जाती है तो वे भी मुस्कुराते हुए, अपने लाखों अनुयायियों के बीच, उसके दर पर नाक रगड़कर अपनी नाक बचा लेते हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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