श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खानाबदोश…“।)
अभी अभी # 421 ⇒ खानाबदोश… श्री प्रदीप शर्मा
एक चींटी हो या चिड़िया, सबका अपना एक मुकाम होता है, घर होता है, घरबार होता है। कोई इंसान घर को साथ लेकर नहीं चलता ! कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जिनका घरबार उनके साथ ही चलता है। ऐसे लोग खानाबदोश कहलाते हैं।
बहुत से लोग रेलवे प्लेटफॉर्म के बाहर और अंदर इस कदर सोते नज़र आते हैं, मानो उनका कोई घर न हो, कोई ठिकाना न हो। इनमें से कुछ मुसाफ़िर होते हैं, और कुछ ऐसे जिन्हें कहीं आना जाना ही नहीं है। प्रशासन इन पर कड़ी नजर भी रखता है, कहीं इनमें कोई असामाजिक तत्व या कोई घुसपैठिया न हो।।
किसी बंजारे अथवा खानाबदोश की ज़िंदगी आज इतनी आसान नहीं, जितनी पहले कभी रहा करती थी। ये लोग लकड़ी की बैलगाड़ी में अपनी पूरी गृहस्थी लेकर निकल पड़ते थे। सड़क के पास किसी भी पेड़ की छाँव में अपना डेरा डाला और अपने दाना पानी का इंतज़ाम शुरू। आप चाहें तो इन्हें चलित लोहार भी कह सकते हैं। ये जनजातियाँ घुमक्कड़ किस्म की होती हैं। रोजगार की तलाश में निकले ये लोग शहर के बाहर आज भी रसोई में उपयोग आने वाले लोहे के तवे, चाकू, कढ़ाई, कढ़छे लोहे की भट्टी में तपाते देखे जा सकते हैं।
ये एक दो नहीं होते ! इनका कारवाँ चलता है। स्मार्ट सिटी और आधुनिकीकरण के चलते ये आम आदमी की नज़रों से दूर होते चले जा रहे हैं। आखिर हैं तो ये भी हमारी संस्कृति के ही अंग। क्या घर परिवार को लेकर इस तरह बिना किसी गंतव्य के कहीं भी कूच किया जा सकता है। मरता क्या न करता।।
कुछ सरकारी और गैर सरकारी नौकरियां भी ऐसी होती हैं, जिनमें एक व्यक्ति को कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी धंधे रोज़गार की खातिर जाना पड़ सकता है। एक जगह पाँव जमे नहीं कि दूसरी जगह जाने का आदेश ! अच्छी खानाबदोशों जैसी ज़िन्दगी हो जाती है इंसान की।
ज़िम्मेदारी भरी परिवार सहित यहाँ से वहाँ भटकने वाली ज़िन्दगी को आप और क्या कहेंगे। पूरे घर परिवार की सुरक्षा हर प्राणी का पहला कर्तव्य है। खुशनसीब हैं वे लोग, जिन्हें एक स्थायी और सुरक्षित ज़िन्दगी गुज़ारने का सुख हासिल है।।
एक और ज़िन्दगी होती है जिसे घुमक्कड़ों की ज़िंदगी कहते हैं। बिना किसी ख़ौफ़ अथवा चिंता-फिक्र के यहाँ से वहाँ निश्चिंत हो घूमना यायावरी की ज़िंदगी कहलाता है। इसमें इंसान घर परिवार की चिंता से मुक्त अकेला ही विचरण किया करता है। यह विचरण सोद्देश्य और निरुद्देश्य भी हो सकता है।
एक समय श्री सुरेन्द्र प्रताप सिंह के संपादकत्व में एक साप्ताहिक पत्रिका रविवार निकला करती थी। उसमें श्री वसंत पोत्दार का एक नियमित स्तंभ होता था
यायावर की डायरी ! यह डायरी कब कहाँ खुलेगी, और उसके किस पन्ने पर भारतीय जीवन का कौन सा दृश्य या किरदार प्रकट होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता था। भाषा, कंटेंट और क़िस्सागोही इस अंदाज में बयां होती थी, कि कुछ कहते न बनता था।
यायावरी का जिक्र हो और श्री देवेंद्र सत्यार्थी को याद न किया जाए, ऐसा मुमकिन नहीं !भारतीय लोकगीतों को अपनी तीन हज़ार कविताओं में संजोकर रखने का काम जो देवेंद्र सत्यार्थी ने किया है, वह एक अनूठी साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर है।।
एक यायावर की ज़िंदगी जहाँ मस्ती, रोमांच और विविधताओं से भरी है, वहीं एक खानाबदोश की ज़िंदगी असुरक्षा, अनिश्चितता और अंधेरों से घिरी है। हमारे जीवन में भी ऐसे कई क्षण आते हैं जब हम इन मानसिकताओं से गुजरते हैं। फ़िल्म रेलवे प्लेटफार्म का यह गीत हमारी यही मनोदशा दर्शाता है ;
बस्ती बस्ती परबत परबत
गाता जाए बंजारा
लेकर दिल का इक तारा।।
कितना अच्छा हो दुनिया में कोई खानाबदोश न रहे, लेकिन सब यायावर रहें! स्वच्छन्द, उन्मुक्त, निर्भय, निश्चिंत, निर्द्वन्द्व।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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