श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “असंग्रह (अपरिग्रह)…“।)
अभी अभी # 422 ⇒ खुरचन… श्री प्रदीप शर्मा
खुरचन एक अकर्मक क्रिया भी है, जिसमें कड़ाही, तसले आदि में चिपका तथा लगा हुआ किसी वस्तु का अंश किसी उपकरण अथवा चम्मच आदि से रगड़कर निकाला जाता है। त्वचा में खुजाल चलने पर, त्वचा को खुरचने की क्रिया के लिए खुर, यानी नाखूनों का उपयोग भी किया जाता है। पीठ की खुजाल का कोई हल नहीं, आप मेरी खुजालो, मैं आपकी खुजालूं।
बच्चे अक्सर नाखूनों से दीवार को खुरचने की कोशिश किया करते हैं। दीवार अथवा फर्श पर, इस तरह अकारण नाखून रगड़ने से, देखने वाले को, न जाने क्यूं, खीझ पैदा होती है। मां के मुंह से एक अक्सर एक शब्द सुनने में आता था, कुचराई, जिसका सामान्य अर्थ अनावश्यक छेड़छाड़, दखल अथवा टांग अड़ाना होता था। सभ्य समाज आजकल उसे उंगली करना कहता है।
वैसे खिसियानी बिल्ली खंभा ही नोचती है, यह सभी जानते हैं।।
बोलचाल की भाषा में बचे खुचे को भी खुरचन ही कहते हैं। जब भी घर में खीर अथवा कोई मिठाई बनती थी, तो खुरचन पर हमारा अधिकार होता था।
बर्तन भी साफ हो जाता था, और माल मलाई हमारे हाथ लग जाती थी।
खुरचन नाम से जले को खुरच कर बनाया हुआ मत समझिए, ये मिठाई है, मिठाई, वो भी शुद्ध मलाई से बनी हुई, मखमली स्वाद देने वाली। वैसे तो बुलंदशहर जिले का खुर्जा अपने पॉटरी उद्योग के लिए बेहद मशहूर है लेकिन इसके साथ-साथ इसकी पहचान एक अनोखी मिठाई से भी है। ऐसी मिठाई जिसका इतिहास 100 साल से भी ज्यादा पुराना है। ये मिठाई है शुद्ध दूध की मलाई से बनी खुरचन, जो मलाई की कई परतें जमने के बाद मखमली सी दिखती है। हालांकि इस मिठाई पर किसी एक जगह का एकाधिकार नहीं. हम इंदौर वाले भी किसी से कम नहीं।।
जो साहित्य में बरसों से जमे हुए हैं, और जिन्होंने कभी सृजन रस बरसाया भी है, और मलाई खाई भी है, वे भी देखा जाए तो अब बचा खुचा ही परोस रहे हैं, लेकिन हाथी दुबला होगा तो भी कितना और जो स्वाद के भूखे होते हैं, वे तो पत्तल तक चाट जाते हैं।
जिस तरह किसी भक्त के भाव के लिए ठाकुर जी के प्रसाद का एक कण ही पर्याप्त होता है, और गंगाजल की केवल दो बूंद ही अमृत समान होती है, उसी प्रकार काव्य, शास्त्र और साहित्य के चुके हुए मनीषियों की खुरचन भी पाठकों और प्रकाशकों द्वारा दोनों हाथों से बटोर ली जाती है।।
वरिष्ठ, सफेद बाल, खल्वाट और वयोवृद्ध नामचीन प्रसिद्धि और पुरस्कार प्राप्त, साहित्य को समृद्ध करने वाले कर्णधारों पर जब कोई असंतुष्ट यह आरोप लगाता है कि उनमें से अधिकांश चुक गए हैं और केवल खुरचन ही परोस रहे हैं, तो प्रबुद्ध पाठकों के कोमल मन को ठेस पहुंचती है।
बंदर क्या जाने खुरचन का स्वाद ! ज्ञानपीठ और राजकमल जैसी साहित्य की ऊंची दुकानों पर कभी फीके पकवान नजर नहीं आते। जो अधिक मीठे से परहेज करते हैं, केवल वे ही ऐसी खुरचन में मीन मेख निकालकर आरोप लगाते हैं, ऊंची दुकान फीके पकवान।।
साहित्य की खुरचन में भी वही स्वाद है, जो छप्पन भोग में होता है। कल के नौसिखिए हलवाई नकली खोए और कानपुरी मिलावटी घी से बने पकवान बेच साहित्य की असली खुरचन से बराबरी करना चाहते हैं। लेकिन दुनिया जानती है, खुरचन ही असल माल है। खुरचन से साहित्य जगत मालामाल है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈