श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गरीबी की रेखा…“।)
अभी अभी # 425 ⇒ गरीबी की रेखा… श्री प्रदीप शर्मा
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो।
क्या ग़म है, जिसको छुपा रहे हो।।
गरीबी भाग्य का खेल है, या पुरुषार्थ का अभाव, यह अभिशाप है अथवा सियासी देन, इस पर संवाद विवाद से कभी कोई निष्कर्ष नहीं निकला है, और जमीनी हकीकत यही है कि गरीबी भी उतनी ही फल फूल रही है, जितनी अमीरी। वास्तव में सुख दुख और लाभ हानि की तरह ही अमीरी गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
क्या दोनों के बीच कोई खाई है, अथवा यह छोटी मछली और बड़ी मछली वाला मामला है। लेकिन सच्चाई तो यही है, समंदर में छोटी मछली भी है और बड़ी भी।।
अगर इसे रेखाओं का खेल मानें तो जरूर हमारे हाथ में भाग्य और जीवन रेखा की तरह कोई गरीबी की रेखा भी होगी। एक हस्त रेखा विशेषज्ञ जब किसी व्यक्ति का हाथ देखता है, तो कई बार हाथ को टेढ़ा मेढ़ा और ऊपर नीचे करता है, मानो किसी डंडी चूम स्कूटर की पेट्रोल टंकी में पेट्रोल ढूंढ रहा हो। जब दृष्टि काम नहीं करती, तो मैग्निफाइंग ग्लास का उपयोग करता है। और जब फिर भी कुछ पल्ले नहीं पड़ता तो दूरदृष्टि का सहारा लेता है, जिसमें सारे ग्रहों का योगदान होता है और बात पुखराज, नीलम और गंडे ताबीज पर आ जाती है। लेकिन उस भले आदमी को कोई गरीबी की रेखा नजर नहीं आती।
रेखाओं का खेल है मुक़द्दर. रेखाओं से मात खा रहे हो.
इस बात में कितनी सच्चाई है, हम नहीं जानते, लेकिन केवल एक सरकार को ही यह कड़वी सच्चाई पता है कि कितने लोगों के हाथ में यह गरीबी रेखा है, और केवल मुफ्त राशन ही उनके चेहरे पर कुछ वक्त के लिए मुस्कुराहट ला सकता है।।
तकदीर की काट केवल तदबीर यानी युक्ति और प्रयास है। जो भाग्य के भरोसे रहते हैं, वे कहीं के नहीं रहते। जब हमने अच्छी तरह से ठोक बजाकर देख लिया है, और तसल्ली कर ली है, कि हमारे हाथ में कोई गरीबी की रेखा है ही नहीं, तो हम मुफ्त में चिंता क्यों पालें।
ऐसे में साहिर दो कदम आगे आते हैं और हमारा हाथ थाम लेते हैं। वे कहते हैं ;
तदबीर से बिगड़ी हुई
तकदीर बना ले।
अपने पे भरोसा हो
तो एक दांव लगा ले।।
डरता है जमाने की
निगाहों से भला क्यूं।
इंसाफ तेरे सर पर है
इल्जाम उठा ले।।
टूटे हुए पतवार हैं
कश्ती के तो हम क्या।
हारी हुई बाहों को ही
पतवार बना लें।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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