श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चिन्तामणि…“।)
अभी अभी # 430 ⇒ चिन्तामणि… श्री प्रदीप शर्मा
सरकारी स्कूल में पढ़ने का एक लाभ यह भी हुआ कि सभी प्रमुख हिंदी लेखकों से परिचय हो गया। प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, महादेवी और हजारीप्रसाद द्विवेदी। सुमित्रानंदन पंत को व्यक्तित्व के आधार पर महिला समझने की भूल हम भी कर बैठे थे। लेकिन सबसे अधिक हमें जिसने प्रभावित किया, वे थे, आचार्य रामचंद्र शुक्ल।
हिंदी साहित्य का इतिहास तो हमने बाद में पढ़ा, लेकिन मनोभाव और विकारों पर चिंतामणि में संकलित उनके निबंधों ने हमें अधिक प्रभावित किया। हमने अंग्रेजी निबंधकार फ्रांसिस बेकन को भी पढ़ा, लेकिन उनमें वह बात नहीं थी, जो चिंतामणि में हमने पाई। । दूसरा हमारा उनकी ओर झुकाव उनके व्यक्तित्व के कारण था, विदेशी पहनावा, गले में टाई, घनी विशिष्ट प्रकार की मूंछ और आंखों पर मोटा चश्मा। ।
तब से आज तक, उनकी शायद एक ही तस्वीर उपलब्ध है। हमारी उनकी केवल एक ही समानता रही है, मैं भी बचपन से ही उनकी तरह मोटा चश्मा लगाता आ रहा हूं। उनका मोटा चश्मा जहां उनके ज्ञान के आगार, तीक्ष्ण बुद्धि और विद्वत्ता का प्रतीक है, वहीं मेरा मोटा चश्मा मेरी मोटी बुद्धि का प्रतीक। हाथ कंगन को आरसी क्या, आप एक तरफ चिंतामणि रख दीजिए और दूसरी ओर अभी अभी। अंतर स्पष्ट हो जाएगा।
मनोभाव हमारे विचारों का ही तो प्रकटीकरण है। अगर चित्त शुद्ध है तो विचार भी शुद्ध ही होंगे और अगर चित्त विकार युक्त है तो वे विचार मनोविकार कहलाएंगे।
चिंता और चिंतन से भी बेहतर एक मार्ग स्वाध्याय का है, जहां चिंतन, मनन, के साथ अध्यात्म चिंतन भी संभव है। चिंतामणि है तो हमारे अंदर ही, उसे बाहर नहीं खोजा जा सकता ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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