श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टोव्ह ।)

?अभी अभी # 433 ⇒ π स्टोव्ह π? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Stove

आज सुबह सुबह सपने में स्टोव्ह महाराज के दर्शन हो गए। स्टोव्ह को आप ना तो चूल्हा कह सकते हैं और ना ही सिगड़ी, और गैस स्टोव तो कतई नहीं, क्योंकि यह घासलेट यानी केरोसिन से जलता था। हो सकता है, किसी घर में आज यह मौजूद हो, लेकिन शायद चालू हालत में नहीं, क्योंकि आजकल जितनी आसानी से पेट्रोल उपलब्ध है, उतनी आसानी से घासलेट नहीं। वैसे घासलेट भी एक पेट्रोल प्रॉडक्ट ही है। पहले हर किराने की दुकान पर भी यह आसानी से उपलब्ध हो जाता था। राशन की दुकान पर गेहूं चावल के साथ घासलेट का भी कोटा था।

इसे चलाना बड़ा आसान था। बस इसकी पीतल की टंकी में पेट्रोल भर दो, और बत्ती लगाकर चार पांच पंप मार दो। पहले थोड़ा भभकेगा लेकिन फिर लाइन पर आ जाएगा। अगर फिर भी नखरे दिखाए, तो इसके मुंह में स्टोव की पिन से उंगली करते ही रास्ते पर आ जाएगा।।

जब घरों में रसोई गैस नहीं पहुंची थी, तब घर घर सिगड़ी और चूल्हे का ही बोलबाला था। सिगड़ी के लिए कोयले और चूल्हे के लिए लकड़ी। चूल्हा जहां होता था, वह चौका कहलाता था। चौका चूल्हा, रोज लीपा जाता था। नो स्टैंडिंग किचन। बैठकर ही खाना बनाओ, और तमीज से बैठकर ही खाना खाओ।

सिगड़ी थोड़ी सुविधाजनक थी, आसानी से मूव हो सकती थी, लेकिन कोयले बहुत खाती कभी लकड़ी के, तो कभी पत्थर के। बस इसी बीच घरों में मिस्टर स्टोव्ह का आगमन हो गया। यह आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता था और बेचारा खुद घासलेट पी पीकर आपको चाय के साथ पकौड़े भी तलकर देता था।।

मेरी नौकरी की कुंवारी गृहस्थी इस स्टोव्ह ने ही तो जमाई थी, जब मुझे पहली बार घर छोड़कर बाहर जाना पड़ा था। एक बोरे में आवश्यक सामान के साथ मिस्टर स्टोव्ह भी लद लिए थे। शहर से चार घंटे की दूरी पर रोजाना आना जाना संभव जो नहीं था।

चार घंटे जाने के और चार घंटे आने के। हां वीकेंड और छुट्टियों में आना जाना सुविधाजनक रहता था।

छोटे से कस्बे में एक अकेले व्यक्ति को एक कमरा तब बीस रुपए में मिला था, लेकिन वह सन् १९७२ था। बोरे का मुंह खोलते ही स्टोव्ह सहित मेरी गृहस्थी का सामान बाहर निकल आया। बहन और मां का यह सम्मिलित प्रयास था। सबसे पहले तवा, चकला बेलन और चिमटा, संडसी और साथ में कढ़ाई, तपेली, परात सहित थाली, कटोरी, चम्मच और ग्लास भी। बिस्तरों का एक होल्डाल साथ में। बाकी जुगाड़ इतना मुश्किल नहीं था।।

स्टोव्ह पर आप चाय, सब्जी तो बना सकते हैं, लेकिन रोटी नहीं सेक सकते। हां मजे से तिकोने परांठे अथवा कड़ाही में पूरी भजिए भी तल सकते हैं। लेकिन हमने मध्यम मार्ग रोटी का ही चुना। रोटी को तवे पर पहले एक ओर से सेंक लिया, फिर उसे पलटकर एक सूती कपड़े से आहिस्ता आहिस्ता गुदगुदा दिया और रोटी फूलकर कुप्पा हो जाती थी। गैस कुकर के अभाव में सब्जी के साथ कभी कभी खिचड़ी भी बन जाया करती थी।

वैसे हमारी यह कुंवारी गृहस्थी केवल कुछ वर्ष ही चली, क्योंकि हमारा तबादला वापस हमारे शहर ही हो गया। आज सुबह मिस्टर स्टोव्ह ने दर्शन देकर बीते दिनों की याद दिला दी। आज स्टोव्ह की तो छोड़िए, घर में एक बूंद घासलेट भी नसीब नहीं होता। बहुत बहुएं जलकर मरी हैं इस मुए घासलेट से। आज मुझे स्टोव्ह की ना सही, लेकिन एक बोतल केरोसिन की जरूरत है, उंगली कट गई, तो थोड़ा घासलेट डाल दिया, डेटॉल का काम करता है। लोहे की जंग हो अथवा खटमल कॉकरोच की जंग, सबमें कारगर। अब तो काला हिट, lizol और हार्पिक का ही जमाना है। घासलेट की बदबू कौन सहे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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