श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हमारा संसार…“।)
अभी अभी # 434 ⇒ हमारा संसार… श्री प्रदीप शर्मा
ये दुनिया हमने नहीं बनाई, हमने जब जन्म लेकर जिस संसार को देखा, बस उसे ही अपना संसार मान लिया। अगर एक बच्चे से पूछा जाए, उसका संसार कित्ता, तो वह भोलेपन से अपने दोनों छोटे छोटे हाथ फैलाकर कह देगा इत्ता, क्योंकि उसने अभी तक उतना ही संसार देखा है।
हमने दुनिया देख ली, इसलिए हमारा संसार बहुत बड़ा हो गया। हमें फख्र है कि हम दीन दुनिया की खबर रखते हैं। जब कि सच यह है कि हमारी अपनी बनाई हुई दुनिया भी बहुत छोटी है। हमने अपने घर बार, रिश्तेदार, यार दोस्त और जमीन जायदाद को ही अपना संसार मान लिया है। जिस घर में रहते हैं, भले ही किराए का हो, उसे अपना घर कहते हैं, जिस मोहल्ले में रहते हैं, उसे अपना मोहल्ला कहते हैं, केवल कुछ लोगों से परिचय के बल पर पहले हमारा शहर, फिर प्रदेश और तत्पश्चात् देश की सीमाओं को लांघ पूरी दुनिया को अपनी मान बैठते हैं। अगर दुनिया में सब ठीकठाक तो ये जिन्दगी कितनी हसीन है और अगर कहीं पत्ता भी खड़का, तो ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नहीं।।
ये दुनिया न मेरे बाप की, न तेरे बाप की, फिर भी इस दुनिया का कोई मालिक तो होगा। कोई इस भ्रम में है कि वो दुनिया पर राज कर रहा है, और कोई अपने बनाए संसार में ही खुश होकर यह स्वीकार कर रहा है, कि ऐ मालिक तेरे बंदे हम। यानी हम एक ऐसे अज्ञात मलिक के संसार में, किराए से रह रहे हैं, जिसे हम “सबका मालिक एक” मान बैठे हैं, लेकिन आपने कभी उसे देखा नहीं।
उस कथित मालिक ने आपको अपना कथित संसार ९९ साल की लीज पर दिया है, और वह भी बिना किसी लिखा पढ़ी के। आपके कायदे कानून वहां नहीं चलते। विधि का विधान होता है, संविधान नहीं। आप चाहो तो उसे शाहों का शाह कहो, अथवा तानाशाह, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह गुंडे नहीं यमदूत पालता है। गरीबी, मुफलिसी और बीमारी से डरा धमकाकर आपको रात दिन परेशान करता रहता है।।
इसी संसार में होते हैं कुछ पहलवान, जिन पर वह कुछ विशेष ही मेहरबान होता है। वे पहलवान अपने संचित पुण्य के बल पर इतराते रहते हैं, भोग योनी होते हुए भी राजयोग लिखवाकर लाते हैं। उन्हें भी ऐसा भ्रम हो जाता है, कि अब तो वे ही इस दुनिया के मालिक हैं, लेकिन ऊपर वाला कब किसकी लीज टर्मिनेट कर दे, इसलिए मन ही मन उस मालिक से डरते रहते हैं और मालिक को भेंट पूजा चढ़ाते रहते हैं।
इसीलिए शायद कबीर कह गए हैं ;
पानी केरा बुदबुदा
अस मानुस की जात।
एक दिना छुप जाएगा
ज्यों तारा परभात।।
शैलेंद्र भी तो आखिर यही फरमाते हैं ;
तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएंगे सारे
अकड़ किस बात की प्यारे ये सर फिर भी झुकाना है..
सजन रे, झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है।
हमारा ही बनाया संसार जब लुट जाता है, तब कैसा लगता है।
हर स्थिति और परिस्थिति में बस यही पारंपरिक प्रार्थना सूझती है ;
ऐ मालिक तेरे बन्दे हम… ऐसे हों हमारे करम… नेकी पर चलें और बदी से डरें…
ताकि हँसते हुए निकले दम।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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