श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लट्टू (TOP)।)

?अभी अभी # 445 ⇒ ~ लट्टू (TOP)~? श्री प्रदीप शर्मा  ?

समय के साथ कुछ शब्द अपना अर्थ खोते चले जाते हैं, जितना हम सीखते चले जाते हैं, उतना ही भूलते भी चले जाते हैं। बचपन का एक खेल था जिसे हम हमारी भाषा में भौंरा कहते थे, सिर्फ इसलिए क्योंकि जब उस लकड़ी के खिलौने को रस्सी से बांधकर जमीन पर फेंका जाता था, तो वह खिलौना तेजी से गोल गोल घूमने लगता था, जिससे भंवरे जैसी आवाज सुनाई देती थी।

एक कील पर भौंरा लट्टू की तरह घूमता नजर आता था। छोटे बच्चों की निगाहें उस पर तब तक टिकी रहती थी, जब तक वह थक हारकर जमीन पर लोटपोट नहीं हो जाता था।

बहुत दिनों से यह खेल ना तो खेला है और ना ही किसी बच्चे को आजकल खेलते देखा है। लट्टू एक प्रकार का खिलौना है जिसमें सूत लपेट कर झटके से खींचने पर वह घूमने या नाचने लगता है। इसके बीच में जो कील गड़ी होती है, उसी पर लट्टू चक्कर लगाता है। यह लट्टू के आकार की गोल रचना वाला होता है। लट्टू लकड़ी का बना होता है। ।

हां आजकल छोटे बच्चों के लिए रंगबिरंगे प्लास्टिक के लट्टू जरूर बाजार में नजर आ जाएंगे, जिन्हें जमीन पर रखकर हाथ से भी घुमाया जा सकता है।

जब तक यह घूमता है, इससे रंगबिरंगी रोशनी निकलती रहती है। इसका भी अंत लोटपोट होने से ही होता है।

लट्टू चलाना तब हम बच्चों के लिए बच्चों का खेल नहीं, पुरुषार्थ वाला खेल था। पहले लट्टू को अच्छी तरह मोटे धागे अथवा पायजामे के नाड़े से बांधना और फिर रस्सी हाथ में रखकर लट्टू को जमीन पर घूमने के लिए पटकना, इतना आसान भी नहीं था। बाद में ज़मीन से उस चलते हुए लट्टू को हथेलियों में उठा लेना आज हम बड़े लोगों का खेल नहीं रह गया। ।

हमारे खेल में कभी कभी घर के बड़े लोग भी शामिल हो जाते थे। वे तो लट्टू को ज़मीन पर पटकने के पहले ही, उस घूमते हुए लट्टू को अपनी हथेलियों में थाम लेते थे और लट्टू उनकी हथेलियों पर शान से चक्कर लगाया करता था। उसके लिए शायद एक शब्द भी था, उड़नजाल। हम तो यह देखकर ही लट्टू हो जाते थे।

आज वह खिलौना कहीं गुम हो गया है, और हमारे बच्चे जमीनी खिलौने छोड़ इंटरनेट पर बड़े बड़े खिलौनों से खेल रहे हैं।

आप चाहें तो इन्हें खतरों वाले खिलौनों के साथ खेलने वाले खिलाड़ी कह सकते हैं। मिट्टी से जुड़े खेलों के लिए ना तो उन्हें मिट्टी ही नसीब होती है और ना ही वह वातावरण। ।

इधर लड़के लट्टू चला रहे हैं, गिल्ली डंडा और सितौलिया खेल रहे हैं और उधर लड़कियां फुगड़ी खेल रही हैं और जमीन पर चाक से खाने बनाकर, एक पांव से पौवा सरका रही है। कौन खेलता है आजकल लंगड़ी।

टॉप शब्द जीन्स और टॉप का पर्याय हो गया है। लट्टू और भौंरे जैसे शब्द अब अपना अर्थ ही खो बैठे हैं क्योंकि आजकल हर भंवरा अपनी पसंद की कली पर ही लट्टू हो रहा है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments