श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| मलाल ||“।)
अभी अभी # 451 ⇒ || मलाल || श्री प्रदीप शर्मा
जहां आत्म संतुष्टि होती है, वहां अवसाद प्रवेश नहीं करता। अभाव, इच्छा और आवश्यकता हमें जीवन में सतत कार्यरत रहते हुए आगे बढ़ने में हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहती है। सफलता का मार्ग प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा का मार्ग है।
उपलब्धियों और इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती। संतुष्टि सफलता के मार्ग में रोड़े अटकाती है और जिद, जुनून तथा असंतुष्टि का भाव हमें अपने गंतव्य तक पहुंचने में मदद करता है।
जीवन के सफर में नीड़ के निर्माण से लगाकर आखरी पड़ाव तक पहुंचने के बीच एक अवस्था ऐसी भी होती है, जब वह कुछ पल रुककर, सुस्ताकर वह सोचता है, मैने जीवन में क्या खोया, क्या पाया। खोने को हम असफलता और पाने को सफलता कहते हैं। पैसा, धन दौलत, अच्छा स्वास्थ्य, मान सम्मान और सुखी परिवारिक और सामाजिक जीवन ही हमारी कसौटी। का मापदंड होता है। ।
जिसे हम विहंगावलोकन कहते हैं, वह एक तरह का आत्म निरीक्षण ही होता है, जीवन में जीत हार, सफलता असफलता और सुख दुख का लेखा जोखा। कहीं हमें अफसोस भी होता है और कहीं अपने आप पर अभिमान भी। आपके अफसोस और रंज के खाते में जो कुछ भी होता है, बस वही तो मलाल होता है।
जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि इल्म अथवा ज्ञान है। इल्म में शिक्षा के साथ साथ हुनर का भी समावेश होता है। जो काम मैं अपने जीवन में परिस्थितिवश नहीं कर पाया, उसमें भाषा प्रमुख है। मातृभाषा हिंदी होने के कारण, कामचलाऊ अंग्रेजी के अलावा मुझे संसार की किसी भाषा का ज्ञान नहीं। मैं ऐसा कैसे कुंए का मेंढक, जिसे हिंदी के अलावा एक भी भारतीय भाषा का ज्ञान नहीं।
काश मेरी मातृभाषा हिंदी के अलावा कुछ और होती। मराठी, गुजराती, उर्दू और संस्कृत का शौक जरूर, लेकिन कभी दो शब्द सीखे नहीं। मैं तो ठीक से मालवी, निमाड़ी अथवा राजस्थानी भी नहीं बोल सकता। ऐसा कैसा हिंदी भासा भासी, हमें सुन सुन आए हांसी। ।
विरासत में परिवार से कोई पेशा नहीं मिला इसलिए कोई हुनर भी हाथ नहीं लगा। ना तो हम डॉक्टर इंजिनियर अथवा शिक्षक ही बन पाए और ना ही कोई नेता, समाज सेवक अथवा एनजीओ। दर्जी, सुतार, व्यापारी अथवा अगर किसान भी होते तो कम से कम अन्नदाता तो कहलाते। मानस जीवन व्यर्थ ही गंवाया, और केवल एक पेंशनधारी करदाता कहलाया।
सीखने की कोई उम्र नहीं होती। हम इस उम्र में कुछ सीखना चाहते भी हैं, तो सुनना पड़ता है, यह भी कोई सीखने की उम्र है। स्मरण शक्ति और नेत्र दृष्टि भी अब क्षीण हो चुकी है, ठीक से सात सुरों की सरगम भी नहीं सीख पाए। जब भी इन कारणों से मन में अफ़सोस, रंज, पछतावा अथवा मलाल होता है, लता मंगेशकर का यह गीत हमारा दामन थाम लेता है ;
जब दिल को सताए गम
तू, छेड़ सखि सरगम
स रे ग म प ध नि स
नि ध प म ग रे स
बड़ा ज़ोर है सात सुरों में
बहते आँसू जाते हैं थम
तू छेड़ सखि सरगम।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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