श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धीरे धीरे मोड़ तू इस मन को…“।)
अभी अभी # 452 ⇒ धीरे धीरे मोड़ तू इस मन को… श्री प्रदीप शर्मा
साहिर कह गए हैं, मन रे, तू काहे ना धीर धरे। इधर हमारा चंचल मन एक महात्मा के भजन पर आकर्षित हो रहा है, हमें दूर के ढोल अधिक पसंद हैं, भजन के बोल तो हमें सुनाई नहीं दे रहे, लेकिन धुन जानी पहचानी लगती है। महात्मा आन गांव के सिद्ध हैं, पर्चियां निकाला करते हैं और बागेश्वर धाम के नाम से जगत प्रसिद्ध हैं। फिलहाल वे व्यासपीठ पर विराजमान हैं, और भक्तों और श्रोताओं को भागवत कथा का रसपान करवा रहे हैं।
व्यासपीठ पर जो विराजमान हो जाता है, उसमें ज्ञान, भक्ति और वैराग्य तीनों प्रविष्ट हो जाते हैं, राम कथा, शिव पुराण कथा, गीता ज्ञान और भागवत ज्ञान इन संतों में स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं। लेकिन कलयुग का फेर देखिए, यहां उल्टी गंगा बहती है, व्यासपीठ वालों को भी ज्ञानपीठ से नवाजा जाता है। ।
देखिए, हमारा चंचल मन हमें कहां ले गया। हमारा ध्यान फिर उसी भजन की धुन पर गया, जिसके बोल हम सुन नहीं पा रहे थे।
अचानक हमें उस सुनी हुई धुन के बोल भी याद आ गए। वह एक फिल्मी धुन थी, जिसके बोल थे, धीरे धीरे बोल, कोई सुन ना ले, कोई सुन ना ले।
महात्मा जी धीरे धीरे बोल रहे थे, इसलिए हम भी उनके भजन के बोल सुन नहीं पा रहे थे। कथा, सत्संग, प्रवचन में कब कोई फिल्मी भजन इल्मी हो जाए, कहा नहीं जा सकता। कुछ मौलिक फिल्मी धुनें होती ही इतनी मधुर हैं, कि उन धुनों पर आधारित भजन सुन पूरा पांडाल झूमता हुआ, समाधिस्थ हो जाता है।
श्रावण मास में इस तरह के फिल्मी धुनों पर आधारित भजन आप अक्सर कथा, कीर्तन और महिलाओं के भजन सत्संग में सुन सकते हैं। ढोलक की थाप पर जब महिलाओं का स्वर परवान चढ़ता है, तो दूर कोई गाए, धुन ये सुनाए, वाला फीलिंग मन में आ ही जाता है। ।
इसके पहले कि हमारी भी समाधि लग जाती, हमने इस भजन के शब्दों को भी कान लगाकर सुनने की कोशिश की। महात्मा जी भी भक्ति के आवेश में आ गए थे, और उनके भजन के बोल अब कानों में स्पष्ट सुनाई पड़ने लगे थे। जिसे हम धीरे धीरे बोल समझ रहे थे, वह यहां, धीरे धीरे मोड़, हो गया था और, कोई सुन ना ले, बड़ी खूबसूरती से, तू इस मन को बन चुका था। यूरेका यूरेका, पूरा भजन हमें भी प्रकट हो गया ;
धीरे धीरे मोड़ तू
इस मन को,
इस मन को
भई इस मन को ….
और हमारा मन भी धीरे धीरे इस भजन की ओर मुड़ता चला गया। मन को बाहर के जगत से अंदर की ओर को मोड़ना ही तो अध्यात्म है, जितने सरल और सरस शब्दों में यह बात की जाए, उतना ही बेहतर है। ।
व्हाट अ ट्विस्ट ! हमारे मन ने भी धीर धरा। हमारा मन पहले उस फिल्मी धुन में अटका, थोड़ा हमारा ध्यान भी भटका। कुछ आग्रह पूर्वाग्रह भी हुए, महात्मा भी कितने फिल्मी होते चले जा रहे हैं, फिर हमारा भी विवेक जाग्रत हुआ, हमारे ज्ञानचक्षु खुले और आज सुबह से ही हम भी यह भजन गाने लगे हैं ;
धीरे धीरे मोड़
तू इस मन को
इस मन को
भई इस मन को …
भक्तों आप भी गाइए। अपने मन को अंदर की ओर मोड़िए। अबाउट टर्न।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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