श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अखबार की रद्दी।)

?अभी अभी # 465 ⇒ अखबार की रद्दी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो पढ़ने से करे प्यार, वो अखबार से कैसे करे इंकार। करते होंगे कुछ लोग उठते ही भगवान का स्मरण, लेकिन आपको सुबह जगाने वाला एक तो अखबार होता है, और दूसरा गर्मागर्म चाय का एक प्याला। चाय अगर तन को ताजगी देती है तो अखबार की ताजा खबरें नींद उड़ा देती हैं। जिस रोज अखबार में कुछ पढ़ने लायक नहीं होता, चाय तक बेस्वाद हो जाती है। चटपटी खबरें चुस्की लेकर पढ़ी जाती हैं। जहां इमोशन है, वहां मोशन है। गर्मागर्म चाय और मसालेदार खबरें। कहीं कहीं तो अखबार भी नित्य कर्म का साक्षी बन जाता है।

चाय पी जाती है, और अखबार चाटा जाता है।

चाय की तलब तो खैर रह रहकर उठ सकती है, लेकिन पूरा चाटने के बाद फिर अखबार को मुंह नहीं लगाया जाता। लेकिन अगर आप लेखक हैं और आपकी कोई रचना किसी अखबार में प्रकाशित हुई है, तो वह प्रति आपके लिए अनमोल हो जाती है। ।

एक आम पाठक के लिए पढ़ा हुआ अखबार किसी काम का नहीं होता। एक गोद के बच्चे की तरह वह घर के सदस्यों के हाथों में घूमा करता है। सबसे पहले पिताजी अखबार पढ़ते थे, हम बच्चों को तो मानो जूठन ही नसीब होती थी।

अखबार को रद्दी होने में ज्यादा समय नहीं लगता।

घर की महिलाएं सबसे आखिर में उन्हें, कपड़ों की तरह, तह करके सहेज कर रखती हैं, सिलसिलेवार तारीखवार। क्या पता किस दिन, किस तारीख का अखबार तलब कर लिया जाए। ।

वैसे रद्दी अखबार इतना रद्दी भी नहीं होता। उसकी भी कई उपयोगिता होती है। पूरियों और पकौड़ों का तेल भी यही रद्दी अखबार सोखता है। अलमारियों और पुराने मकानों की ताक में अखबार ही तो बिछाया जाता था। बच्चों के घर में अखबार के कई उपयोग हुआ करते हैं।

फिर आती है एक दिन बारी, सलीके से सहेजी गई इस रद्दी की विदाई की। रद्दी वाला और अटाला वाला टू इन वन होता है। उसकी निगाह रद्दी के अलावा घर की अन्य पुरानी चीजों पर ही होती है। घर कितना भी साफ सुथरा हो, एक जगह गैर जरूरी सामान, खाली डब्बा, खाली बोतल जमा हो ही जाते हैं। ।

फिर होता है रद्दी का मोल भाव। बाजार के सौदे में जहां हर चीज का भाव कम करवाया जाता है, यहां रद्दी की मानो बोली लगाई जा रही हो। जब रद्दी वाला टस से मस नहीं होता, तो रद्दी की तारीफ शुरू हो जाती है। देखो कितनी बढ़िया रद्दी है, एक जैसी, बिना कटी फटी। लेकिन रद्दी वाला नहीं पसीजता। माता जी रद्दी है, कोई सोना नहीं। रद्दी के भाव ही बिकेगी।

रद्दी का बाजार भाव और आस पड़ोस का भाव तक जान लिया जाता है। इधर रद्दी की तारीफ पर तारीफ से रद्दी वाला अपना धैर्य खो बैठता है और कह उठता है, आपका तो अखबार ही रद्दी है, आप लोग कैसे पढ़ लेते हो। रद्दी में बिक रहा है, यही गनीमत है। ।

मैं अखबार नहीं पढ़ता, पत्नी की पसंद का अखबार है, वह आहत हो जाती है। मैं समझाता हूं, देखो जिद मत करो, जो मिल रहा है, ले लो। वह भरे मन से अपने प्रिय अखबार की रद्दी को विदा करती है। भले ही अखबार रद्दी हो, पत्नी की पसंद का है, गनीमत है, रद्दी के भाव तो बिक रहा है। पसंद अपनी अपनी, अखबार अपना अपना..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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