श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मंदिर और अस्पताल।)

?अभी अभी # 503 ⇒ मंदिर और अस्पताल ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वो खेत में मिलेगा खलिहान में मिलेगा, भगवान तो ऐ बंदे अस्पताल में भी मिलेगा ;

अगर हमारे देश में गिनती की जाए, तो मंदिरों की संख्या अस्पतालों से कुछ ज्यादा ही मिलेगी। सुख में कौन अस्पताल जाता है भाई, जब बीमार होता है, तभी इंसान अस्पताल का रुख करता है, जब कि सुख, दुख, हंसी खुशी और गम, सभी अवसरों पर भगवान को याद किया जाता है, कभी खुशी में प्रसाद चढ़ाया जाता है, तो कभी मुसीबत में मन्नत भी मांगी जाती है।

मंदिर अगर आस्था का विषय है तो अस्पताल सेवा और इंसानियत का। आस्था के आगे तर्क हमेशा घुटने टेक देता है। कहने वाले कहते रहे हमें मंदिर नहीं अस्पताल चाहिए, इंसान की आस्था इतनी बलवती होती है कि आपको हर छोटे बड़े अस्पताल में एक मंदिर भी मिलेगा। अस्पताल में भले ही डॉक्टर भगवान हो, लेकिन असली डॉक्टर तो भगवान ही होता है।

जब डॉक्टर के सभी प्रयास विफल हो जाते हैं तब वह भी यही कहता है, अब तो केवल प्रार्थना कीजिए, सभी ईश्वर पर छोड़ दीजिए। हम डॉक्टर हैं, भगवान नहीं।।

हमारे देश में मंदिर कहां नहीं। कभी विद्यालयों को भी मंदिर कहा जाता था। हमारा अक्षर ज्ञान ही आदर्श बाल मंदिर से हुआ था। अगर हमारे अंदर ऐश्वर्या प्रेम है तो हमारा दिल भी एक मंदिर ही हुआ न। कबीर तो कह भी गए हैं ;

मो को कहां ढूंढे रे बंदे,

मैं तो तेरे पास में।

ना मंदिर में, ना मस्जिद में

मैं तो हूं विश्वास में।।

जब तक हमको डॉक्टर में विश्वास है, डॉक्टर हमारे लिए भगवान है और अस्पताल हमारे लिए मंदिर, और अगर हमारी आस्था ही नहीं, तो फिर तो मंदिर में भी भगवान नहीं।

फिर भी मंदिर और अस्पताल में जमीन आसमान का अंतर है। ‌

भगवान के घर देर है अंधेर नहीं लेकिन कहीं-कहीं के अस्पताल में उपचार नहीं, सिर्फ अंधेर गर्दी ही है। हमारे मंदिर का भगवान तो कुछ भी नहीं मांगता।

हम भले ही करते रहें तेरा तुझको अर्पण, लेकिन आप जो भी उसे अर्पित करते हैं वह उसे वापस आपको लौटा देता है तेरा तुझको अर्पण।

भगवान सिर्फ देता ही देता है कुछ लेता नहीं। लेकिन अस्पताल में ऐसा नहीं है।

यहां तो सरकारी डॉक्टर भी तनख्वाह लेता है, और प्राइवेट प्रैक्टिस भी करता है। और अस्पताल प्राइवेट है तो वहां का खर्चा किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं। कोरोना काल में डॉक्टर और भगवान दोनों किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे। मंदिरों के पट बंद हो गए थे, हर घर एक अस्पताल हो गया था और अस्पताल मुर्दाघर। जहां आस्था होती है, वहां तो केवल प्रार्थना में ही चमत्कार होता है। लक्ष्मण के लिए हनुमान जी संजीवनी बूटी लाए थे, और हमारे लिए मोदी जी को – वैक्सीन। अब तो सबमें इतना बूस्टर डोज है कि लोग उस त्रासदी को ही भूल गए हैं।।

मंदिर और अस्पताल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जब डॉक्टर हमारी जान बचाता है तो वह हमारे लिए भगवान हो जाता है। ईश्वर हम सब में विराजमान है, एक बीमार में भी और एक डॉक्टर में भी। निस्वार्थ सेवा ही ईश्वर की सेवा है।

मंदिर मंदिर मूरत तेरी

फिर भी ना दीखे सूरत तेरी।

जहां प्रेम है, निःस्वार्थ सेवा है, बस वहीं मंदिर है, वहीं भगवान है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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