श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंछी, काहे होत उदास।)

?अभी अभी # 521 ⇒ पंछी, काहे होत उदास ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिनके पंख होते हैं, उनका घर खुला आकाश होता है ! जब पंछी थक जाता है, तो किसी डाल पर, किसी मुंडेर पर बैठ जाता है, प्रकृति उसके दाना-पानी की व्यवस्था करती है, और रात्रि विश्राम के लिए वह अपने नीड़ का निर्माण करता है।

क्या बचपन में कभी आप भीड़ में, अथवा मेले में खोए हो ? एक मुसाफ़िर वीरान जंगल में जब राह भटक जाता है, रास्ता भूल जाता है, दिशाहीन हो जाता है, तब खुले आकाश के नीचे होते हुए भी वह अपने आपको जकड़ा और असहाय सा महसूस करता है। वापस अपनी मंज़िल पाने के लिए, सही रास्ते पर आने के लिए, उसे किसी मार्गदर्शक की, रहबर की जरूरत होती है। जब तक भटके हुए राही को उसकी मंज़िल नहीं मिल जाती, वह अपने आपको एक बंधक सा महसूस करता है। और जब उसे उसकी मंज़िल मिल जाती है, उसे लगता है, उसे दुनिया की हर चीज मिल गई।।

खोना और खुद को खोने में यही फर्क है। जब हम खो जाते हैं, तो हमें मंज़िल की तलाश होती है और जब हम खुद को खो देते हैं, तो मंज़िल आसान हो जाती है।

हम पंछी की बात कर रहे हैं !

कबूतर शांति का प्रतीक माना जाता है। मैं जिस जगह निवास करता हूं, वहां न ज़मीन मेरी है, न आसमान। एक अदद 2 BHK फ्लैट मेरा आशियाना है। मेरे घर में खिड़कियां हैं, जिनसे मच्छर न आएं, इसलिए जालियां लगी हैं, हवा आने के लिए घर में पंखे जो हैं।।

घर का दरवाज़ा खुला देख, न जाने कहां से सुबह सुबह, एक कबूतर अचानक घर में प्रवेश कर गया। किसी अनचाहे व्यक्ति को तो आप बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं, लेकिन आकाश में उड़ने वाले आज़ाद परिंदे को, भटकने पर, रास्ता नहीं दिखा सकते। अभिमन्यु की तरह वह मेरे घर में प्रवेश कर तो गया था, लेकिन वहाँ से वापस निकलना, उसके बस में नहीं था।

मैं कोई बहेलिया नहीं था, मैंने कोई जाल नहीं बिछाया था। मैं चाहता था, कि वह वापस सुरक्षित खुले आकाश में विचरण करे। मैं उसकी मदद करना चाहता था, लेकिन हम दोनों न तो एक दूसरे की भाषा जानते थे, और न ही अपने भावों को प्रकट कर सकते थे। मुझे देख उसकी छटपटाहट और बढ़ जाती, मैं चाहता, उसे पकड़कर बाहर छोड़ दूँ, लेकिन वह घबराकर और कहीं उड़कर बैठ जाता। मुझे लगा, मैंने उसे बंधक बना लिया है। थक हारकर मैंने उसकी मुक्ति के सारे प्रयास छोड़ दिये और घर के सभी खिड़की दरवाज़े खोल दिए, और एक मूक दृष्टा बनकर, अपने आपको उसकी नज़र से छुपा लिया।।

वह करीब दो घंटे एक ही जगह बैठा रहा ! जब उसे पूरी तसल्ली हो गई, कि वह एकदम अकेला है, उसका डर कुछ कम हुआ और उसने बाहर जाने की कोशिशें शुरू कर दीं। मैं केवल प्रार्थना करता रहा और वह प्रयत्न। कभी खिड़की के पास तक जाता, फिर वापस आ जाता। मुझे आश्चर्य हुआ, जो

पक्षी दिन भर खुले आसमान में उड़कर शाम को अपने घर आसानी से पहुँच जाता है, वह एक नई जगह, बंद होने पर कितना असहाय हो जाता है।

उसे राह सूझ नहीं रही थी, और अपने आपको बुद्धिमान समझने वाला मैं मूर्ख प्राणी उसकी कोई मदद नहीं कर पा रहा था।

धैर्य का फल मीठा होता है। उसकी मेहनत रंग लाई, और पाँच घंटे की कशमकश के बाद उसे बाहर जाने का दरवाजा नज़र आया और पंछी ने मुक्त आकाश में उड़ान भर ही ली। ईश्वर ने मेरी प्राथना सुन ली। आखिर एक अभिमन्यु नियति के चक्रव्यूह से बाहर आने में सफल हुआ।।

मैं कितना, एक पंछी की व्यथा, बेबसी और मेरी लाचारगी को, आप तक पहुंचाने में सफल हुआ, नहीं जानता, लेकिन के एल सहगल कितनी आसानी से उस पंछी की बात कह गए देखिये ;

पंछी रे, काहे होत उदास !

तू छोड़ न मन की आस।

देख घटाएँ आई हैं

एक संदेसा लाई हैं

पिंजरा लेकर उड़ जा पंछी

जा साजन के पास

पंछी, काहे होत उदास।।

कवि प्रदीप भी कह गए हैं,

पिंजरे के पंछी रे, तेरा दर्द न जाने कोय !

हम अपने शौक और मनोरंजन के लिए इन मूक पशु-पक्षियों को बंधक बनाकर इनके पालक बन बैठते हैं। जो प्राणी अपनी इच्छा से हमारे पास आए, अथवा मज़बूरी में आपके पास आए, तो आप उसे पालकर उस पर अहसान कर सकते हैं। और अहसान तो तब ही होगा, जब उसे आप उसकी ही दुनिया में रहने दें। अगर आपने उसे शरण दी भी है, तो वापस उसे उसके परिवार में, उसकी दुनिया में छोड़ दें।

आपकी सहनशक्ति और सहिष्णुता के वैसे भी बहुत चर्चे हैं आजकल ! सुना है जब आप किसी इंसान से असहमत होते हैं, तो उसे अपने दुश्मन के पास भेज देते हैं। मुझे खुशी है, वह नन्हा सा प्राणी हमारी नफ़रत की दुनिया से वापस अपनी दुनिया में सुरक्षित चला गया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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