श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सुबह सवेरे…“।)
अभी अभी # 522 ⇒ सुबह सवेरे श्री प्रदीप शर्मा
सुबह सवेरे को हम प्रातः काल भी कहते हैं। कुछ लोगों के लिए तो जब जागे तभी सवेरा होता है लेकिन जो नहीं जागा क्या उसकी सुबह नहीं होती। कुछ लोग जाग उठते हैं तो कुछ को जगाना पड़ता है ;
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
अब रैन कहाँ जो तू सोवत है
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है..
पक्षियों को कौन जगाता है, मुर्गा क्यों दिन उगने के पहले ही बांग देकर सूर्यवंशियों की नींद में खलल डालता है। उधर एक मलूकदास ने अजगर के साथ पंछियों को भी लपेट लिया, पंछी करे ना काम। अगर सबके दाता राम ही हैं तो पंछी क्यों हमारे उठने के पहले ही आकाश मार्ग में मैराथन फ्लाई किया करते हैं।
यही प्रार्थना काल उषाकाल भी कहलाता है।
मैं किसी मुहूर्त को नहीं मानता सिर्फ ब्रह्म मुहूर्त को मानता हूं। इसे अमृत वेला भी कहते हैं। यह योगियों के जागने का समय होता है। वैसे तो योगी जागा जगाया होता है, फिर भी रात्रि का समय विश्राम का होता है। पूरी प्रकृति भी रात में थम सी जाती है।
लेकिन प्रकृति के विश्राम में भी सृजन चलता रहता है। कोई कली, कहीं खिल रही होती है, तो उधर रात रानी महारानी तो रात में ही खिलने, महकने लगती है। ।
योगियों का ध्यान साधना कहलाता है और संगीत में साधना को रियाज भी कहा जाता है। आखिर सुर की साधना भी तो परमेश्वर की ही साधना होती है।
जिसे प्रार्थना, इबादत अथवा अरदास कहते हैं, उसका समय भी सुबह का ही होता है। सभी आराधना स्थलों में सुबह की आरती कीर्तन और प्रार्थना होती है। कहीं राम का गुणगान होता है, तो कहीं कृष्ण का कीर्तन।
रियाज तो पहलवान भी करते हैं, जिसे वर्जिश कहते हैं, आखिर उस्ताद, गुरु, और पहलवान कहां नहीं होते। सुबह का समय ही तो अभ्यास का होता है। सुबह का याद किया दिन भर ही नहीं, जीवन भर याद रहता हैं। वैसे ईश्वर को तो हर पल स्मरण किया जा सकता है ;
कलियुग केवल
नाम आधारा।
सिमर सिमर
नर उतरे पारा।।
संगीत में प्रात:कालीन राग भी होते हैं। सुबह सवेरे हम जितने भी भजन अथवा फिल्मी गीत सुनते हैं, वे सब किसी न किसी राग पर ही आधारित होते हैं। राग भैरव अगर जागो मोहन प्यारे है, तो मेरी वीणा तुम बिन सूनी, राग अहीर भैरव पर आधारित है। जब हम पूछो न कैसे मैने रैन बिताई गुनगुनाते हैं तो वह भी राग अहीर भैरव ही होता है।
इधर सुबह हमारा ध्यान चल रहा है और उधर कहीं रेडियो पर गीत बज रहा है, इक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताजमहल, हमारा ध्यान भटकता है, लेकिन हम नहीं जानते, यह फिल्मी गीत भी राग ललित पर ही आधारित है। हो सकता है, धुन और ध्यान का आपस में कुछ संबंध हो। ।
मेरी सुबह आज भी ध्यान धारणा के पश्चात् रेडियो से ही शुरू होती है। आज भी देखिए, विविध भारती की प्रातःकालीन सभा भजनों से ही शुरू होती है, जिसके बाद भूले बिसरे गीत और संगीत सरिता प्रोग्राम। और तो और देखादेखी में रेडियो मिर्ची भी सुबह का रिचार्ज आराधना से ही करने लगा है। रेडियो सीलोन पर भी यही क्रम था, पहले भजन और उसके बाद पुरानी फिल्मों का संगीत। आप ही के गीत आते आते तो सुबह की आठ बज जाती थी।
हम जानें या ना जानें, हमारे पास संगीत सदा विराजमान रहता है, ईश्वर तत्व की तरह, हम उससे भले ही अनजान रहते हों, लेकिन हमारे कान कभी धोखा नहीं खाते। जो भी पुराना फिल्मी गीत अथवा भजन हम अवचेतन में गुनगुनाने लगते हैं, उसकी धुन किसी शास्त्रीय राग पर ही आधारित होती है। ।
संगीत और ईश्वरीय अनुभूति गूंगे का गुड़ है।
यह ज्ञान और विद्वत्ता का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। जो इसे जानता है, उसे जानने का अहंकार भी हो सकता है, लेकिन संगीत का रस और ईश्वरीय अनुभूति तो केवल डूबने से ही प्राप्त हो जाती है। करते रहें करने वाले शास्त्रार्थ और तत्व मीमांसा। जरा उधर देखिए ;
काग के भाग बड़े सजनी।
हरि हाथ सौं ले गयो माखन रोटी। ।
© श्री प्रदीप शर्मा
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