श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – “एक फूफा का दर्द …“।)
अभी अभी # 527 ⇒ एक फूफा का दर्द श्री प्रदीप शर्मा
हम अच्छी तरह जानते हैं कि एक फूफा जगत फूफा होता है और वह जहां भी शादियों में जाता है, लोग उसे आंखें फाड़ फाड़कर देखते हैं, लेकिन इसमें उसका कोई दोष नहीं। वह ना तो आसमान से टपका है और ना ही जन्म से फूफा पैदा हुआ है। परिस्थितियों ने उसे फूफा बनाया है और उससे अधिक, आपकी बुआ ने ही उसे फूफा बनाया है। वह भी कभी आपकी तरह एक अच्छा भला, खाता पीता इंसान था।
वैसे पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती, लेकिन जब फूफा फूफा में भेद होने लगता है तो हम भी अपनी फूफागिरी पर आ जाते हैं।
जब बड़ी बुआ से छोटी बुआ को अधिक महत्व दिया जाता है, तो हमसे बर्दाश्त नहीं होता। जिस जगह बुआ का ही मान ना हो, वहां एक फूफा आखिर किस मुंह से पांव रखे। ।
हम पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि हम किसी से बात ही नहीं करते। जरा अपनी बुआ से पूछकर तो देखिए, कभी उसने किसी के सामने अपना मुंह खोलने दिया है। आप तो बस चुप ही रहा करिए, हर जगह मेरी नाक कटाया करते हो। क्या होता है यह मान सम्मान और मनुहार, अब गिद्ध भोज में क्या कोई आकर अपने हाथ से आपके मुंह में गुलाबजामुन ठूंसेगा। और वैसे भी आप इसकी भी नौबत ही कहां आने देते हो। पहले से ही प्लेट में चार पांच गुलाब जामुन सजा लेते हो, मानो बाद में कभी खाने को मिले ना मिले। और उधर मुझे सुनना पड़ता है, लो देखो बुआ जी, आप कहते हो, फूफा जी को शुगर है, पूरी प्लेट में चाशनी चू रही है और उधर फूफा जी की लार टपक रही है। कल से उन्हें कुछ हो गया, तो ठीकरा तो हमारे माथे ही फूटेगा ना।
वैसे आपकी बुआ भी कम नहीं है, चुपके से हमारी प्लेट में दो कचोरियां रख जाती हैं, जल्दी खा लो, गर्मागर्म हैं, फिर खत्म हो जाएंगी। तुम काजू को छूना भी मत। मैने तुम्हारे लिए मुठ्ठी भर भरकर काजू निकाल रखी है, इनका क्या है, भगवान ने बहुत दिया है इन भाइयों को। ।
यकीन मानिए, हम पहले ऐसे नहीं थे। बढ़ती उम्र ने हमें ऐसा बना दिया है। एक जमाना था, जब हमारे भी जलवे थे। खूब दबा दबाकर खाते थे, और चोरी छुपे सोमरस पीने वाली युवा पीढ़ी की पूंछ पर पांव धर देते थे, फिर उन्हें ब्लैकमेल कर उनकी जमात में शामिल हो जाते थे। अच्छे भले दिन गुजर रहे थे कि किसी दिलजले ने बुआ से हमारी चुगली कर दी।
बस वह दिन है और आज का दिन, तुम्हारी बुआ ही हमारी नंबर एक की दुश्मन है। हमें जगह जगह बदनाम करती है, हमारी चादर मैली करती है और खुद तो जैसे दूध की धुली नजर आती है। ।
समय ने हमें क्या से क्या बना दिया, किडनी, बीपी, शुगर, कोलेस्ट्रॉल और भूलने की बीमारी ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। बुआ तो खैर हमारी आवश्यक बीमारी है, क्योंकि वही तो हमें समय समय पर दवा की खुराक और मुफ्त का डोज़ पिलाते रहती है।
अब हम फूफा हैं तो हैं, अच्छे बुरे जैसे भी हैं, फूफा ही रहेंगे। यही हमारी और आपकी नियति है। आखिर हमसे बच के कहां जाओगे। अगर शादी में नहीं आए, तो लोगों को क्या जवाब दोगे, क्या बात है, वे ललितपुर वाली बुआ और फूफा जी कहीं नजर नहीं आ रहे..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈