हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 538 ⇒ यह घर मेरा नहीं ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆
श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “यह घर मेरा नहीं…“।)
अभी अभी # 538 ⇒ यह घर मेरा नहीं श्री प्रदीप शर्मा
मैं यहां हरि ओम शरण की बात नहीं कर रहा, जो कह गए हैं, ना ये तेरा, ना ये मेरा, मंदिर है भगवान का। मै जिक्र कर रहा हूं, राग दरबारी वाले श्रीलाल शुक्ल का, जिनकी एक कृति है, यह घर मेरा नहीं। जिस इंसान ने पहले मकान जैसे उपन्यास की रचना कर दी हो, वह अगर कहे कि यह घर मेरा नहीं, तो बात कुछ गले नहीं उतरती।
घर बनाए ही जाते हैं, रहने के लिए, और किराए से उठाने के लिए ! जो किराए के मकान में रहता है, वह भी अक्सर यही कहता है, यह घर मेरा है। लेकिन जब पहली तारीख को किराया देना पड़ता है, तब वह भी सोचता है, काश मेरा भी खुद का घर होता।।
कुछ लोग घर बनाते हैं, कुछ खरीदते हैं, और कुछ बांधते हैं ! जो खरीदते हैं, उन्हें सिर्फ पैसे का या लोन का इंतजाम करना पड़ता है, लेकिन जो बनाते हैं, वे ही जानते हैं, मकान बनाना, लड़की की शादी निपटाने जैसा काम है। आज जैसी सुविधाएं पहले नहीं थी। न मकान बनाने में, न लड़की की शादी करने में।
एक ज़माना था, खुद के मकान को तो छोड़िए, पड़ोसी और दोस्तों, रिश्तेदारों के मकानों की भी तरी करनी पड़ती थी। कहीं की ईंट, कहीं का पत्थर, पैसा पैसा बचाकर मकान बनाया जाता था। तब न मल्टी बनती थी, न बिल्डर होते थे। किसी पहचान के ठेकेदार को लिया, और मकान शुरू।।
कुछ लोग घर बांधते थे। कैसे बांधते थे, मैं कभी समझ नहीं पाया। फिर किसी ने समझाया, कुछ नहीं, जिस बैंक से लोन लेते हैं, वह इसे बंधक रख लेता है, जब तक आखरी किस्त अदा नहीं हो जाती।
घर को ही मकान कहते हैं ! मकान दो तरह के होते हैं, एक किराए का मकान, और एक घर का मकान। धर्मवीर भारती ने जिस बंद गली के आखरी मकान का जिक्र किया है, मैं उसमें 35 वर्ष रह चुका हूं। लेकिन वह मेरा घर नहीं था, किराए का मकान था।।
इंसान चाहे झोपड़ी में रह ले, वह उसका घर होता है ! जिस घर में चैन है, और चैन की नींद है, वही घर है। ईंट पत्थरों के भी कहीं घर होते हैं। बच्चा स्कूल से घर आता है, आदमी दफ्तर, दुकान से शाम को घर आता है। जब भी हम घर से दूर होते हैं, घर बहुत याद आता है।
घर- परिवार को आप अलग नहीं कर सकते। पहले इंसान घर बनाता है, फिर घर चलाता है। महिलाएं घर गृहस्थी साथ लेकर चलती हैं। लड़कियां बचपन से ही घर घर खेलती हैं। हर लड़की के दो घर होते हैं, एक पीहर, एक ससुराल। आदमी की तो बस, पूछिए ही मत ! कभी घर का, तो कभी घाट का।।
महल हो या झोपड़ी, घर घर होता है। कहीं महल में कैकई होती है, क्लेश होता है, तो कहीं किसी कुटिया मे महात्मा विदुर का स्थान होता है, जहां वासुदेव कृष्ण और साग होता है। घर में मां, बहन, बेटी, बहू हो, चैन हो, सुकून हो ! ईश्वर करे, ऐसा कभी ना हो, कि किसी को कहना पड़े, यह घर मेरा नहीं।
कहने को तो शैलेन्द्र भी कह गए हैं, तुम्हारे महल चौवारे, यहीं रह जाएंगे प्यारे ! कुंदनलाल भी कहते कहते थक गए, बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए। साहिर भी तो कहते हैं, ये दुनिया मेरे बाबुल का घर, वो दुनिया ससुराल। क्या फर्क पड़ता है, दोनों ही घर अपने है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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