श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हथियार…“।)
अभी अभी # 543 ⇒ हथियार श्री प्रदीप शर्मा
यहाँ किसी अस्त्र-शस्त्र, ब्रह्मास्त्र अथवा तोप-तमंचे-तलवार का ज़िक्र नहीं हो रहा है, यहाँ तक कि एक मामूली से पत्थर को भी हथियार नहीं बनाया जा रहा है। हम उस प्रकृति-प्रदत्त हथियार की यहाँ चर्चा करने जा रहे हैं जो प्रकृति ने हर प्राणी को केवल अपनी सुरक्षा के लिए प्रदान किए हैं।
‘लाठी में गुन बहुत है,
सदा राखिये संग।
गहर नदी, नाला जहां
तहाँ बचावे अंग। ‘
गिरधर कवि कितने भोले थे!
उन्हें लाठी में भी सब गुण ही नज़र आए, केवल अपनी सुरक्षा के लिए झपटते हुए कुत्ते पर ही उसका प्रयोग करते थे। लाठी से किसी का सर भी फोड़ा जा सकता था, उन्हें यह गुमान न था।
हथियार का आम उपयोग सुरक्षा और प्रहार के लिए किया जाता है। हर जीव को अपनी सुरक्षा करने का अधिकार है। कोई भी साँप अथवा बिच्छू आदतन अथवा इरादतन आपको डसने कभी नहीं आएगा। अपनी सुरक्षा के लिए ज़हरीला डंक उसका मुख्य हथियार है, तीखे दाँत, चोंच और नाखून की भी पशु-पक्षियों के लिए यही उपयोगिता है।
मानव सभ्यता में शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए, उसे परास्त करने के लिए हथियारों का उपयोग किया जाता है। जो जीता वही सिकंदर! जीत का नशा और हार का गम। सभ्य-असभ्य कहें या देव असुर, कोई फर्क नहीं।
जानवर, जानवर रह गया, मनुष्य सभ्यता में बहुत आगे निकल गया। देवासुर संग्राम, महाभारत, कलिंग युद्ध, एक नहीं दो-दो विश्व-युद्ध, निस-दिन खून-खराबे, नए-नए हथियार लेकिन क्या कभी पेट भरा ?
और उधर आम आदमी ग़रीबी और लाचारी की लड़ाई में ही संघर्षरत है। आज लड़ाई में हथियारों की इतनी कमी है, कि हथियारों पर ही लड़ाई हो रही है। किसे मालूम था कि बोफोर्स और रॉफेल जैसे अत्याधुनिक हथियार बिना चले ही राजनैतिक लड़ाई के हथियार बन बैठेंगे?
इंसान दिमाग की खाता है! उसे जब लड़ना होता है, वह किसी भी चीज को हथियार बना लेता है। आज के समय में धर्म, राजनीति, साहित्य, समाज-सेवा सब उसके लिए हथियार का काम कर रहे हैं। जहाँ मीठी ज़ुबान तक कटारी का काम कर रही है, नैनों से ही तीर चल रहे हों, आशिक घायल हो रहे हों वहाँ हथियारों की कमी नहीं।
एक आग रोशनी के लिए जलाई जाती है, ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए अलख जगाई जाती है। जिस पत्थर को आपस में रगड़कर अग्नि जलाई जाती है, जिससे महल, मकान, धर्मशालाएं बनाई जाती है, जब वह पत्थर ही हथियार की तरह इस्तेमाल होने लगे तो बस यही कहा जा सकता है –
‘ये शमा तो जली, रौशनी के लिए,
इस शमा से कहीं आग लग जाए
तो शमा क्या करे। ‘
व्यंग्य भी काँटे से काँटा निकालने वाली एक विधा ही है। विसंगतियों के समाज में एक कड़वी दवा है। यह एक ऐसा हथियार है, जो केवल उपचार के काम आता है। परसाई, शरद, श्रीलाल की पीढ़ी ने इसे व्यंग्य की चाशनी में सराबोर ज़रूर किया लेकिन उनके प्रहार ने सृजन को नई ऊंचाइयां दीं।
यह हथियार घातक नहीं लेकिन इसका निशाना अचूक है। कहीं यह कड़वा नीम है, तो कहीं करेला! आखिर भरवां करैला किसे पसंद नहीं?
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© श्री प्रदीप शर्मा
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